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32. गुरू धारण करने का उपदेश

फरीद जी ने अनुभव किया कि गुरू, पीर या मुर्शिद के बिना प्राणी का नेक राह पर चलना कठिन है। अगर परमात्मा ने स्वयँ किसी को नेक राह पर चलाने की सदबुद्धि प्रदान की हो तो वह और बात है। फरीद जी ने अपनी बाणी में कहा है:

फरीद भूमि रंगावली मंझि विसूला बाग ।।
जो जन पीरि निवाजिआ तिंन्हा अंच न लाग ।।82।।  अंग 1382

उस समय भारत और मध्य एशिया में राजनीतिक और धार्मिक खींचोतान थी। उस स्थान पर मनुष्य घबराया हुआ बेचैनी में ठोकरें खाता था। मन की शाँति खोजनी कठिन थी। वैर विरोध, लालच और वासना प्रधान थी। ऐसी परिस्थितियों में हजारों में पाँच दस लोग थे जो सत्य के निकट थे, जिन्हें मन की शाँति प्राप्त थी। परन्तु समाज में सम्मान कम मिलता था। “कूड़ु फिरै प्रधान वे लालो“ वाली दशा यानि झूठ का बोलबाला था। फरीद जी के समय में हिन्दूओं की मति वेद और पुराण पढ़-पढ़कर कमजोर हो रही थी। पूजारी बूतों यानि मूर्तियों और पत्थरों की पूजा करते थे। लोगों के मन को भरोसा नहीं आता था। फरीद जी ने फरमाया है कि धरती देखने को सुखों का बाग है, रँगों से उज्जवल है, परन्तु हकीकत में काँटों भरा बाग है। पर जिन्होंने गुरू धारण किया है और जिनके ऊपर गुरू का हाथ है वह बच जाएँगे। उन्हें जरा भी आँच नहीं आएगी। जैसे रात्रि में समुद्र में, जहाज को रोशनी देने वाल स्तम्भ बचाते हैं, वैसे ही गुरू हर स्थान पर हर मोड़ पर अपने सेवक या मुरीद की रक्षा करता है। जीवन की राह दिखाता है और वाहिगुरू यानि परमात्मा की शरण में ले जाता है।

सूही महला ५ ॥
गुरु परमेसरु करणैहारु ॥
सगल स्रिसटि कउ दे आधारु ॥१॥
गुर के चरण कमल मन धिआइ ॥
दूखु दरदु इसु तन ते जाइ ॥१॥ रहाउ ॥
भवजलि डूबत सतिगुरु काढै ॥
जनम जनम का टूटा गाढै ॥२॥
गुर की सेवा करहु दिनु राति ॥
सूख सहज मनि आवै सांति ॥३॥
सतिगुर की रेणु वडभागी पावै ॥
नानक गुर कउ सद बलि जावै ॥४॥१६॥२२॥  अंग 741

फरीद जी पाकपटन में नये आए थे कि उनके पास एक सैलानी आया। उसने बताया कि वह इरान मैं पैदा हुआ और बड़ा हुआ। वह दस वर्ष से मन की शाँति की खोज में इधर-उधर भटक रहा था। फिरता-फिरता हिन्दुस्तान आया है। सैलानी ने कहा: दरवेश जी ! सुना है कि हिन्दूस्तान में अनेकों मुर्शिद यानि गुरू और मदरसे हैं जहाँ मन की शान्ति की विद्या प्राप्त होती है। मैं लाहौर से मुलतान जा रहा था, आपके बारे में सुना तो यहाँ पर आ गया। फरीद जी बोले: पुत्र ! “वसी रबु हिआलीऐ जंगलु किआ ढूढेहि“ प्रभू तो दिल में बसता है। जंगलों और विदेशों में खोजने की आवश्यकता नहीं। आपने कोई मुर्शिद यानि गुरू धारण किया है ? सैलानी बोला: मुझे कोई ऐसा वली नहीं मिला जिसे मैं अपना मुर्शिद धारण करता। बहुत खोज की, हर एक में कोई न कोई कमी नजर आई। फरीद जी बोले: पुत्र ! इसका मतलब तो यह हुआ कि आपकी नजर साफ नहीं। शँका का बीज आँखों में है अपनी ओर नहीं देखता:

फरीदा जे तू अकलि लतीफु काले लिखु न लेख ।।
आपनड़े गिरीवान महि सिरू नीवां करि देखु ।।6।।  अंग 1378

दूसरे की कर्म की कमाई देखने से पहले अपनी तरफ क्यों नहीं देखते। यदि गुणों की ओर ध्यान केंद्रित न करोगे तो गुरू यानि मुर्शिद धारण नहीं कर सकोगे। कमियों की और ध्यान नहीं देना चाहिए। वह सैलानी फरीद जी के चरणों में गिर पड़ा और उनके कहे अनुसार बँदगी करने लगा। धीरे-धीरे वह एक उच्च कोटी का फकीर बन गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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