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31. समय की कद्र

बेडा बंधि न सकिओ बंधन की वेला ।।
भरि सरवरू जब ऊछलै तब तरणु दुहेला ।।  अंग 794

समय की कद्र करनी कुदरत के निकट रहने के बराबर है। वर्षा और सर्द ऋतु का ख्याल कर चींटी भी अपना भोजन एकत्रित कर लेती है। खेती का काम करने वाला यदि सही मात्रा में पानी न दे तो फसल का लाभ नहीं मिल सकता। फरीद जी समय की सम्भाल के विषय में एक बेड़ी के मल्लाह का उदाहरण देकर उपदेश करते हैं कि कोई मल्लाह बड़ा सुस्त था। आज का काम कल के ऊपर छोड़ देता था। उसने अपने बेड़े की ओर ध्यान न दिया। न रस्से ठीक किए, न टूटी लकड़ियों को कील लगाए, जब दरिया में बाढ़ आई तो फट्टे टूटे देखकर घबरा गया। उस बेड़े के आसरे दरिया पार करना अति कठिन था। दुनिया में मनुष्य सच को छोड़कर झूठ के पीछे लग जाता है। उम्र बीतती जाती है और जब अंत समीप आता है तो पछतावा करता है। समय की कद्र करनी चाहिए क्योंकि बीता हुआ समय हाथ नहीं आता। मौत का जो दिन नियत है उसने उस दिन निश्चित रूप में आना है।

हथु न लाइ कसुंभड़ै जलि जासी ढोला ।। रहाउ ।।  अंग 794

कसुंभड़ा जँगल का पौधा है। इसके पत्तों के दोने बनते हैं। कसुंभड़े के फूल लाल रँग के नजर आते हैं, पर रँग कच्चा होता है, ऐसे ही उतर जाता है। फरीद जी कसुंभड़े का उदाहरण देकर कह रहे हैं कि हे मनुष्य ! होश में रह । दुनिया की हर वस्तु नष्ट होने वाली और कसुंभड़े की भाँति एक आग का रूप है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या माया के पदार्थों का त्याग पूर्ण रूप से हो ? मनुष्य, पक्षी, पशु, कीड़े-मकौड़े जितनी भी चौरासी लाख जूनियाँ हैं सबकी होंद (अस्तित्व) या बनावट पाँच तत्वों से है। और जीवन का असारा भी अनाज, जल, हवा से है। सर्दी के तत्व से बचने के लिए घर की आवश्यकता है और कपड़े भी चाहिए। काम के बिना शक्ति एँव सन्तान उत्पन्न नहीं होती। अहँकार के तत्व से जीवन चलता है, लालच और ममता से प्रेरित होकर परिश्रम करते है। परमात्मा ने जो भी धरती पर पैदा किया है वह जीवों की भलाई के लिए किया है। समझने की बात यह है कि हर वस्तु का प्रयोग होना चाहिए पर उतना ही जितना अनिवार्य हो। जैसे रहने के लिए घर जरूरी है पर जो दौलत एकत्रित कर सौ-सौ कमरों के महल बनाता है वह लालची है। वह धन एकत्रित करके साहूकार बनने का प्रयत्न करता है, यह ठीक नहीं। इसी प्रकार कई लोग अधिक भोजन ग्रहण करके बीमार हो जाते हैं। धर्म के कार्य करने के विपरीत चोरी और बेईमानी करता हैं। राज्य बढ़ाने के लिए लाखों बेकसूरों का खून करते है। बादशाह होकर इन्साफ न करना यह सब पाप है। फरीद जी गृहस्थी थे। पत्नी, बच्चे, घर था परन्तु सबसे प्रिय धर्म था। हर स्त्री-पुरूष के लिए पतिव्रता धर्म का पालन करना अनिवार्य है। माया कमानी पाप नहीं यदि माया लोक भलाई में प्रयोग की जाए और “मैं“, “मेरी“ के शब्द जुबान से न निकलें पर यह कहा जाए– “हे करतार ! सब तेरी दया से हुआ है, मेरा कुछ नहीं। तू ही कृपा करता है और तू ही मर्जी से ले जाता है।“

इक आपीनै पतली सह केरे बोला ।।
दुधा थणी ने आवई फिरि होइ न मेला ।।
कहै फरीदु सहेलीहो सहु अलाएसी ।।
हंसु चलसी डुंमणा अहि तनु ढेरी थीसी ।। (सूही ललित)  अंग 794

अर्थ: समय जो बीत गया सो बीत गया। वह दुबारा वश में नहीं आता। बचपन के पश्चात जवानी आई और गई। बुढ़ापे में कितना भी सोचें कि जवानी आ जाए, वह नहीं आएगी। जो कार्य जवानी में करने थे यदि वह नहीं किए तो दोबारा नहीं होंगे। फरीद जी फरमाते हैं कि मालिक यानि परमात्मा ने आवाज दी। जिन्होंने सुन ली वह जाग गए और पार हो गए। जिन्होंने नहीं सुनी वह पिछड़ गए। पछताने लगे और उम्मीद करने लगे कि दोबारा आवाज आएगी, पर वह उस तरह न आई जैसे पहले आई थी। फरीद जी मिसाल देते हैं कि जैसे बकरी, भैंस और गाय के स्तनों में जो एक बार दूध आ जाए वो दोबारा नहीं आता, उसी प्रकार एक बार जीव बिछड़ जाए तो दुबारा नहीं मिलता। भाव यह है कि मनुष्य जन्म एक बार मिल जाए तो दोबारा नहीं मिलता। इसलिए इसका लाभ उठाकर भजन बँदगी की जाए। क्या पता कर्मों के आधार पर यह जन्म फिर मिले न मिले। फरीद जी फरमाते हैं कि हे भक्त जनो ! समय का मूल्य पहचानो। जब परमात्मा ने धर्मराज को हुक्म दिया इस जीव आत्मा ने चले जाना है। जीव आत्मा और मन ने मिट्टी हो जाना है। जीव आत्मा ने अपने कर्मों का मीठा कड़वा फल खाना है। गुरूमुखों यानि गुरू अनुसार चलने वालों ने ही अच्छा स्थान प्राप्त करना है–

मारेहि सु वे जन हउमै बिखिआ जिनि हरि प्रभ मिलण न दितीआ ।।
देह कंचन वे वंनीआ इनि हउमै मारि विगुतीआ ।।
मोहु माइआ वे सभ कालखा इनि मन मुखि मूड़ि सजुतीआ ।।
जन नानक गुरमुखि उबरे गुर सबदी हउमै छुटीआ ।।

(सूही छंत महला 4)  अंग 776

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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