30. प्रभु मिलाप की इच्छा
श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में फरीद जी की रागु सूही में आई बाणी:
तपि तपि लुहि लुहि हाथ मरोरउ ।। बावलि होई सो सहु लोरउ ।।
तै सहि मन महि कीआ रोसु ।। मुझु अवगन सहि नाही दोसु ।। अंग 794
भक्ति और संत मार्ग में स्त्री को ऊँचा स्थान दिया है और भक्त
अपने आपको उस अकालपुरख यानि परमात्मा की नारियाँ समझते हैं। जैसे भारतीय नारी अपने
पति को सच्चा प्यार करती हैं, वैसे ही भक्त को ईश्वर से सच्चा प्रेम करना चाहिए। जब
कभी माया के प्रभाव से भक्त का ध्यान ईश्वर से टूट जाए तो होश आने पर भक्त तड़प उठता
है और व्याकुल हो उठता है। जैसे किसी सुहागिन को पति त्याग दे, क्रोधित हो जाए या
परदेस चला जाए तो वह तड़प उठती है। प्यार ही जीवन है, शरीर तो प्यार भरी आत्मा का घर
है। जैसे एक नारी अपने पति को परमेश्वर मानकर पूजती है वैसे ही भक्त परमेश्वर को पति
मानते हैं। इसलिए नारी को भी केवल परमेश्वर को ही पति मानना चाहिए जो कभी मरता ही
नहीं है। जिस कारण नारी सदा सुहागन रह सकती है।
फरीद जी कहते हैं कि परमात्मा के विछोड़े में भक्त व्याकुल खड़ा
है। माया के प्रभाव से परमात्मा की तरफ से ध्यान हट गया है या फिर परमात्मा ने आप
ही अपनी शक्ति से ध्यान हटा दिया है। अब मैं तड़प रहा हूँ, तड़पते हुए हाथों को मरोड़ता
हुआ पछता रहा हूँ। पागल सा हुआ फिर रहा हूँ, यही इच्छा कर रहा हूँ कि सच्चा पति
परमेश्वर मिले, मन में और कोई लोचा नहीं। हे मेरे मालिक ! भक्ति मार्ग से हटने पर
आप मुझ से गुस्से हो गए हो। मैं तो माया रूपी पदार्थों में खो जाने वाला एक अल्प
बुद्धि अज्ञानी हूँ। आप ही अपनी शक्ति से मुझे अपने समीप रख सकते हो।
तै साहिब की मै सार न जानी ।। जोबनु खोइ पाछै पछतानी ।। अंग
794
बाणी की यह तुकें आत्मिक और सामाजिक जीवन के दोनों पहलूओं पर
रोशनी डालती हैं। पहला पहलू सामाजिक है। आज से हजारों वर्ष पहले और आज भी जवानी के
समय नारी से कई भूलें होती हैं, कभी ससुराल को अपना घर नहीं समझती। माता-पिता की ओर
ध्यान रखती है, पति से प्यार का शाँति रस नही रहता। आखिर वह लड़ाई ऐसा रँग लाती है
कि लड़की अपने मायके आ बैठती है और छुट्टड़, आवारा कई तरह के कुबोल उसके नाम के साथ
जुड़ जाते हैं। पर फिर भी वह समझती नहीं। जवानी के दिन सर्दी के दिनों की भाँति
शीघ्र ही बीत जाते हैं। पति मिलाप नहीं होता। गृहस्थ जीवन के सुखों से वँचित रह जाती
है। आखिर जब होश आती है तो पछतावा होता है। बुढ़ापे में यदि पति से मेल हो भी जाए तो
निसफल, पछतावे में व्याकुल हुए ही अंतकाल आ पहुँचता है। आत्मिक पक्ष यह है कि
मनुष्य को माया के अंग अहँकार, ममता, लालच आदि घेर लेते हैं। जवानी में मनुष्य
परमात्मा की ओर ध्यान नहीं देता। चोरी, यारी और ठगने पर ध्यान करता हुआ अमलों में
जाया हो जाता है। बल आ जाने पर लोगों से लड़ाइयाँ लेता है, जेल जाता है। शरीर में
शक्ति नहीं रहती, धन नहीं रहता तो सेवा भक्ति क्या करनी हुई। भक्ति भी जवानी में ही
हो सकती है और धीरे-धीरे स्वभाव बन जाता है। जब ज्ञान होता है कि भक्ति करनी चाहिए
आखिर हिसाब होना है तो पछतावा होता है।
बुढ़ा हो के चार मसीत वडिआ, लगां आइतां पड़न कुरान दीआं ।।
आगे फरीद जी कोयल पँछी के द्वारा सच्चे प्यार और प्यार के बिछोड़े
के दुख का हवाला देते हैं:
काली कोयल तु कित गुन काली ।।
अपने प्रीतम के हउ बिरहै जाली ।। अंग 794
कोयल काले रँग का पक्षी है। चेत के महीने में जब आम को बूर पड़ता
है तो कोयल प्रकट होती है। बोलती है। कहते हैं “आमों से प्यार है।“ वह आमों की
प्रतीक्षा में कूकती है। उसका काला रँग देखकर दरवेश ने उससे पूछा: “हे कोयल ! तेरा
रँग काला क्यों है ?“ कोयल ने कहा: हे दरवेश जी ! मैं प्रीतम प्यारे से बिछड़ने के
कारण व्याकुल हूँ। उस व्याकुलता से मेरा रँग काला हो गया है फरीद जी सूफी फकीर थे।
सुफी फकीर अपने गले में काले कपड़े डालते हैं। काला रँग उदासी, बिछोड़े और दुख का रँग
है। फकीर सदा विछोड़े में माला फेरते रहते हैं। परमात्मा की तरफ से यदि ध्यान हट जाए
तो व्याकुल हो उठते हैं। मायावाद से दूर रहते हैं। मायावादियों की संगत भी भक्ति को
भँग करती है। सूफी बड़े परहेजगार होते हैं।
पिरहि बिहुन कतहि सुखु पाए ।।
जा होइ क्रिपालु ता प्रभू मिलाए ।। अंग 794
यह ठीक है कि परमात्मा के बिना भक्त को शान्ति नहीं मिलती। यदि
कोई विघ्न पड़े तो परमात्मा के आगे अरदास ही की जाए। वही कृपा करे और अपना नाम जपाए।
अपने साथ मिलाए। जो जीव विनती नहीं करते, धीरे-धीरे संत मार्ग को छोड़ देते हैं। उनके
विषय में गुरूबाणी में आता है:
सउ ओलामैं दिनै के राती मिलनि सहंस ।।
सिफति सलाहणु छडिकै करंगी लगा हंसु ।।
फिकु इवेहा जीविआ जित खाइ वधाइआ पेटु ।।
नानक सचे नाम विणु सभो दुसमनु हेतु ।।
जिन्ही न पाइओ प्रेम रसु कंत न पाइओ साउ ।।
सुंने घर का पाहुणा जिउ आइआ तिउ जाउ ।।
फरीद जी कहते हैं:
विधण खूही मुंध इकेली ।। ना को साथी ना को बेली ।।
करि किरपा प्रभि साध संगि मेली ।।
जा फिरि देखा तो मेरा अलहू बेली ।। अंग 794
अर्थ: यह सँसार पाँच बुराइयों का गहरा कुँआं है, जिसमें आम लोग
डूबते हैं। मैं भी उसमें अकेली आत्मा डूबी हूँ। कोई साथी नहीं, कोई मित्र नहीं। भाव
यह है कि जीव यहाँ कुकर्म करता है, यहाँ भी अकेला ही मार खाता है और आगे भी। दरगह
में हिसाब अकेले से लिया जाता है। फरीद जी अरदास विनती करते हैं कि सतसंग में बैठने
का मौका मिले। उस सतसंग में से ज्ञान होगा कि उसका मित्र केवल वो एक अल्लाह ही है।
भाव यह है कि मनुष्य को अच्छे और बूरे ज्ञान का पता संगत से लगता है। यदि कुसँगियों
में बैठता है तो बुरी लत लेता है। बुरी आदतों को पक्का कर लेता है। पर यदि वह
धर्मियों, नेक पुरूषों और भजन बँदगी करने वालों के संग बैठता है तो संत मार्ग उसे
ईश्वर से मिलाता है।
वाट हमारी खरी उडीणी ।। खनिंअहु तिखी बहुतु पिईणी ।।
उस ऊपरि है मारगु मेरा ।।
सेख फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा ।। (सूही ललित) अंग 794
फरीद जी कहते हैं कि मैंने परमात्मा की बँदगी का राह अपनाया है।
यह राह आसान नहीं। दूसरा मँजिल बहुत दूर है। सैंकड़ों कोस दूर। रास्ता बहुत कठिन है
और बाल से भी बारीक है। इसलिए ऐसे रास्ते पर चलने के लिए पहले ही तैयारी करनी चाहिए,
उस समय क्या हो पाएगा।