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28. सच्चा भक्त कौन है ?

फरीद जी की संगत में रोज श्रद्धालू बैठते और साधू, संत एँव फकीर लोग भी हाजिर रहते, ईश्वर के ज्ञान की महिमा की चर्चा रहती थी। एक दिन भक्तों में सच्चा कौन है की चर्चा चल पड़ी। यह भी कहा गया कि फकीरी भक्ति के मार्ग पर जो चल पड़ता है, वह सच्चा है। सच्चाई को घीरे-धीरे प्राप्त करता है, चर्चा सुनकर फरीद जी ने बाणी उच्चारण की–

दिलहु मुहबति जिंन्ह सेई सचिआ ।।
जिन्ह मनि होरू मुखि होरू सि कांढे कचिआ ।।
रते इसक खुदाइ रंगि दीदार के ।।
विसरिआ जिन्ह नामु ते भुइ भारू थीए ।। 1 ।। रहाउ ।।  अंग 488

अर्थ: कच्चे और पक्के, ईश्वर के प्रेमी का पता तो उसके कर्म से लगता है। बातों से तो कोई सच्चा है, बड़ा भक्त कहलाता है, जिन्हें खुद से दिल से प्यार है, उन्हें ही सच्चे भक्त समझो, प्यार की डोर से उनकी आत्मा, परमात्मा से मिली होती है। उन्हें हर तरफ परमात्मा की ही लीला नजर आती है और कोई वैरी, बड़ा छोटा नजर नहीं आता। उनकी जुबान से मीठे वचन निकलते हैं और किसी के गुण अवगुण बताने से प्राय: वे अपने भीतर की कमियों को देख लेते हैं। मिट्टी और सोना उन्हें एक समान नजर आता है। पर जो पाखण्डी भक्त हैं, जिनकी जुबान पर नाम बाणी है पर मन में लालच, मोह, अहँकार और वैर विरोध है, वह कच्चे हैं। वह खोटे सिक्के के समान हैं, चाहे कितना भी छिपाना चाहें, उनकी सच्चाई प्रकट हो जाती है। कई तो अपनी मनोकामना पूरी करने की इच्छा से संत मार्ग पर चल पड़ते हैं। एक फकीर को धन की आवश्यकता थी, वह धन के लालच में ही फकीर बना था। उसके मन में चोर था और अमीरों को अपने निकट लाने के अनेकों प्रयत्न करता था। एक विधवा नारी उसके जाल में आ गई। उसकी बहू-बेटे का पुत्र नहीं था। पोता पाने की लालसा में वह व्याकुल हुई फिरती थी। लालची फकीर नकली जादू टोने करके उससे धन प्राप्त करने लगा। वह फकीर तखीए से उठकर उस विधवा के घर जाने लगा और बातों के जाल में फँसाकर यह पूछ लिया कि सोना, चाँदी और समस्त धन दौलत कहाँ है। भोली विधवा ने निःसंकोच सब कुछ बता दिया। वह तो फकीर को खुदा का यार समझती थी। एक दिन वह फकीर एक भाँग का प्याला ले आया और कहा कि यह उसे एक फरिशते ने दिया है, यदि वह इसे पी ले तो उसे पाँच पोतों का वरदान मिल जाएगा। उस औरत ने फकीर पर विश्वास करके वह प्याला ली लिया। फकीर ने उसमें बेहोशी की दवा मिला रखी थी। पर विधवा के दिल और दिमाग पर भाँग ने असर नहीं किया। उसकी भक्ति सच्ची थी और फकीर बेईमान था। खुदा ने उस विधवा का पक्ष लिया। उसकी बहन अपने चारों बच्चों के साथ आ पहुँची। बहन और फकीर को एक साथ देखकर उसे फकीर के इरादों पर शक हुआ। वह पहले भी लोगों से सुन चुकी थी कि उसकी बहन को किसी फकीर ने अपने जाल में फँसा लिया है। वह क्रोधित हुई, उसकी विधवा बहन ने उत्तर दिया कि आज मुझे प्रतीत हो रहा है कि फकीर चोर है, अच्छा हुआ तूँ सही समय पर आ गई। फकीर उसकी बहन को देखकर घबराहट में पहले की दौड़ गया था। अगले दिन खबर मिली कि वह कई लोगों से धन लेकर भाग गया है। तीसरे दिन खबर मिली कि उसे रात को डाकू मिले जिन्होंने उसका सारा माल लूटकर उसे मृत अवस्था में सुनसान स्थान पर छोड़ दिया। पुरे एक साल के बाद विधवा के घर पर पोता हुआ। उसका विश्वास और गहराया और वह पूर्ण रूप से बँदगी में लीन हो गई। मन की सभी वासनाएँ त्याग दीं। उसे खुदा के दीदार होने लगे और उच्च कोटि की फकीरन बन गई।

विसरिआ जिन्ह नामु ते भुइ भारू थीए ।। अंग 488

अर्थ: जिन जीवों को "करतार" याद नही रहता वह "मनमर्जी" से चलते हैं। माया की प्रेरणा से संत मार्ग को त्यागकर शैतानी राह पर चलते हैं, वह धरती पर व्यर्थ बोझ हैं। उनका उस परवरदिगार की रचना में कोई हित नहीं। जो परमात्मा को याद नहीं रखते वह खुदगर्ज होते हैं। अपने लिए जीते और धँधा करते हैं। दूसरे को कुछ नहीं समझते। जैसे चोर चोरी करते समय दूसरे की चिँता नहीं करता कि मैं इसका सब कुछ लूट कर ले गया तो यह बेचारा क्या करेगा, कैसे गुजारा करेगा ? डाकू, ठग, जेबकत्तरे आदि कभी किसी का भला नहीं सोचते। इसी तरह दुराचारी पुरूष धरती पर बोझ है, वह नीचता बिखेरता है। बड़े-बड़े राजे, साहूकार और कई सैनिक जरनैल हुए हैं जो अपने कुकर्मों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी प्रजा बहुत दुखी रही और उन्हें मन की मन कोसती रही। वह लोगों का धन दौलत छीनकर अपने खजाने बनाते गए पर यह समझने में असमर्थ रहे कि यह सब कुछ तो इसी सँसार में छोड़ जाएँगे। भक्ति के अलावा कुछ भी साथ नहीं जाएगा। फरीद जी ने कहा है:

आपि लीए लड़ि लाइ दरि दरवेस से ।।
तिन्ह धंनु जणेदी माउ आए सफलु से ।।  अंग 488

अर्थ: फरीद जी कहते हैं कि परमात्मा जिस पर कृपा करे उसे ही अपनी भक्ति की ओर लगाता है। वह सम्पूर्ण भक्त बनते हैं और परमात्मा के दरबार में शोभा पाते हैं। वह माताएँ भी धन्य हैं जिन्होंने ऐसे भक्त को जन्म दिया। उनका जीवन सफल है। जिसका जस नही, जो परोपकारी नहीं वह जीवन में असफल है।

परवदगार अपार अगम बेअंत तू ।। जिन्हा पछाता सचु चुंमा पैर मूं ।।
तेरी पनह खुदाइ तू बखसंदगी ।। सेख फरीदै खैरू दीजै बंदगी ।।  अंग 488

अर्थ: बाबा फरीद जी "परमात्मा" को सम्बोधन करके उसकी "प्रशँसा" करते हैं कि हे परमात्मा ! तू हर एक को पालने वाला है, तेरा अंत कोई नहीं पा सकता। उसी तरह जैसे तेरी रचना जल, थल एँव आकाश पाताल का अंत नहीं। आपकी आगमता को, सच्चाई को जिन्होंने समझ लिया है, मैं उनका इतना आदर करूँ कि उनके पैर चूमूँ, भाव कि तेरे भक्तों का सेवक बनूँ। हे परमात्मा ! मुझे तेरा आसरा है, तूँ मेरी हर प्रकार से रक्षा करता है। सब तेरी कृपा हैं, यह माँग है और सँसार में तेरा दिया बहुत कुछ है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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