22. कोदरा और हंस
दिल्ली और हाँसी के डेरे छोड़कर जब फरीद जी पाकपटन आए तो लोग बहुत मनमति वाले और धरती
भी सूखी थी, काजियों और मौलानाओं ने उनके आगमन की विरोधता की। उन्हें डर था कि फरीद
जी कहीं उनकी रोटी न छीन लें। उनके पाखण्ड का पर्दाफाश न कर दें। लोगों की अज्ञानता
देखकर फरीद जी ने हंस पक्षी का हवाला देकर उनकी हँसी उड़ाई और अपने मन का विचार
प्रकट किया:
कलर केरी छपड़ी आइ उलथे हंस ।।
चिंजू बोडन्हि ना पीवहि उडण संदी डंझ ।।64।। अंग 1381
सीधा अर्थ: मान सरोवर के हंस उड़ते-उड़ते सूखी धरती पर आ गए। उन्हें
प्यास लगी तो धरती पर एक पानी की छपरी देखकर उतरे। जब किनारे पर बैठकर पानी की ओर
देखा तो निराश हो गए। पानी नमक वाला, कड़वा और मैला था। निराशा इस बात की थी कि अब
उनमें उड़ने की शक्ति न थी, वह पछताने लगे कि उतरे ही क्यों। भाव अर्थ– फरीद जी,
पाकपटन इस आशा से आए कि अल्लाह से जुड़कर जीवन के बाकी दिन काट लेंगे। पर जब कुसँगी
लोगों ने वैर-विरोध किया तो उन्हें निराशा हुई। पर वहाँ से उठकर जाना मुश्किल था।
खुदा से दुआ करते रहे कि लोगों के मनों को शुद्धि दो। फरीद जी लालची काजियों को
सम्बोधित करके कह रहे थे:
हंसु उडरि कोधै पइआ लोकु विडारणि जाइ ।।
गहिला लोकु न जाणदा हंसु न कोध्रा खाइ ।।65।। अंग 1381
सीधा अर्थ: उड़ते हुए हंस, कोदरे यानि बाजरे जैसे एक आनज के खेत
में उतरे। जब खेत के मालिक ने देखा तो उन्हें उड़ाने के लिए दौड़ा। पर उस बावरे को यह
नही पता कि हंस तो कोदरा खाते ही नहीं। भाव अर्थ– बाबा शेख फरीद जी महान त्यगी थे।
उनकी आत्मा निर्मल हो चुकी थी। जब वह पाकपटन में पहुँचे तो जो अपने आप को शहर का
मालिक समझते थे, धार्मिक महात्मा। वह हसं रूप फरीद जी को शहर से निकालने का प्रयत्न
करने लगे। उन मूर्खों को यह नहीं पता था कि फरीद जी तो त्यागी थे, वह किसी की रोजी
नहीं छीन सकते थे। महापुरूष जो भी वचन करते हैं या शिक्षा देते हैं तो वह पूरी
मानवता को सम्बोधित करते हैं, दोनों श्लोकों का भाव यह है कि सँसार में लोग अलग-अलग
धँधे करते हैं। हर एक ने हिस्सा अपना लेना होता है, फिर भी हम पेशे वाले से ईष्या
करते हैं। क्रोध में अपने आप को जलाते रहते हैं। हंसों ने हंस ही रहना है और बगलो
ने बगले। दुनिया चलती धर्मशाला है। कई आए और कई गए। “मैं“ और “मेरी“ का तो केवल
भ्रम है।
चलि चलि गईआं पंखीआं जिन्ही वसाए तल ।।
फरीदा सरू भरिआ भी चलसी थके कवल इकल ।।66।। अंग 1381
अर्थ: सँसार पर अनेकों ऐसे ही गुजरे जिन्होंने नए शहर बसाए,
सल्तनतें कायम कीं। यहाँ तक कि एक दिन तालाब ने भी सूख जाना है, कमल फूल अकेला रहकर
मुरझा जाएगा, हंसों ने भी निराश होकर उड़ जाना है, सँसार तो एक चलती सराय है।
फरीदा किथै तैडे मापिआ जिन्ही तू जणिओहि ।।
तै पासहु ओइ लदि गए तूं अजै न पतीणोहि ।।73।। अंग 1381
फरीद जी फरमाते हैं कि मनुष्य, मनुष्य से व्यर्थ ही वैर विरोध
करता है। यह नहीं सोचता कि जहाँ मेरे पूर्वज गए हैं, मैंने भी वहीं जाना है। पर समझ
की कमी है। पक्के पैर जमाने के लिए लड़ता है, अहँकार और लालच में अँधा हुआ फिरता है।
उस परमात्मा को याद नहीं करता जिसकी इच्छा से यहाँ आया है और चले जाना है।