21. पाखण्ड के विरूद्ध उपदेश
संत मार्ग का मुख्य उद्देश्य है जीवन को निरभय, निरवैर और सच्चा सुच्चा बनाकर किसी
का दिल न दुखाना। एक दिन दो फकीर फरीद जी के दर्शन करने आए। वे पाखण्डी थे परन्तु
लिबास उच्च फकीरों वाला था। फरीद जी ने उनके मन की अवस्था को जानकर यह श्लोक
उच्चारण किया:
फरीदा कंनि मुसला सूफु गलि दिलि काती गुड़ु वाति ।।
बाहरि दिसै चानणा दिलि अंधिआरी राति ।।50।। अंग 1380
फरीद जी ने कहा, भाई मैं फकीर कहाँ हूँ ? कँधे पर मुसल्ला (सफ)
भी रखता हूँ, काले सूफ का चोला भी डाला है, देखने को बड़ा फकीर हूँ। पर मेरे मन की
अवस्था कोई दूसरा नहीं जान सकता। वह तो अदृश्य है, असल में कैंची जैसी है, जो लागों
की जेबों और जीवन को काटती है, पर जुबान गुड़ जैसी मीठी है। मीठी और प्यार की बातें
असलीयत को भ्रमित करके उससे अपना मतलब निकालती हैं। धोखा देना तो एक रास्ता है,
देखने को हम उच्च कोटि के पीर हैं, सूर्य के समान, पर दिल में घोर अँधेरा है,
अमावस्या की रात्रि के समान, उस अँधेरे में पाँच चोर अपनी पूरी हरकत करते हैं। वह
फकीर चोरी, यारी, लालच और अहँकार को दिल से नहीं त्याग सके थे। फरीद जी की जुबान से
सच जानकर उनके कुकर्मी दिल डोल गए। सच ने उन्हें आकर्षित किया, दोनों ने हाथ जोड़
दिए। फकीर जी से कहने लगे– मौला के सच्चे साँईं ! हमें सीधा रास्ता दिखाओ। हम सचमुच
ही पाखण्डी हैं, जो आपका वचन है वही सचमुच हमारी अवस्था है। हमें बखशिए और अल्लाह
से बखशवाइए। फरीद जी ने सलोक उच्चारण किया:
फरीदा जिन्ही कंमी नाहि गुण ते कंमड़े विसारि ।।
मतु सरमिंदा थीवही सांई दै दरबारि ।।59।। अंग 1380
अर्थ– हे साँईं लोगों ! दुनिया में "अच्छे" और "बूरे" दो तरह के
"कर्म" हैं। अच्छे कर्म परमात्मा की ओर ले जाने वाले और उसे खुश करने वाले हैं। जगत
में शोभा के पात्र बनते हैं और मृत्यु उपरान्त परमात्मा के दरबार में ले जाते हैं।
सच बोलना, दया, धर्म, सत्य, सँतोष, सेवा और खुदा के नाम की बँदगी कुछ ऐसे कर्म हैं।
बूरे कर्म शैतानी हैं, जो यहाँ भी लज्जित करवाते हैं और रोगों से शरीर को भी नष्ट
करते हैं। इसलिए भलाई तो इसमें है कि जिनसे कोई गुण प्राप्त होने की आशा नहीं वह
कार्य मत करो। क्योंकि गुणहीन कार्य करने से मालिक के दरबार में लज्जित होना पड़ेगा।
जब मँदे कार्यों का त्याग करोगे तो स्वयँ ही सच की ओर चल पड़ोगे। असली फकीर बन जाओगे।
दरवेश कैसा हो : फकीरों ने कहा, फरीद जी ! यह बताओ कि दरवेश कैसा हो ? फरीद जी ने
कहा–
फरीदा मंडप मालु न लाइ मरग सताणी चिति धरि ।।
साई जाइ सम्हालि जिथै ही तउ वंञणा ।।58।। अंग 1380, 1381
अर्थ: सँसार के सभी महलों, "कीमती वस्तुओं से प्यार न करो"। मौत
को अवश्य याद रखो, उस कब्रिस्तन पर कब्जा करो जहाँ एक दिन अवश्य जाना है। भाव यह कि
मौत को याद रखो, जो मौत को याद रखता है, वह कभी भी सँसार की माया से प्यार नहीं करता।
फरीदा साहिब दी करि चाकरी दिल दी लाहि भरांदि ।।
दरवेसां नो लोड़ीऐ रूखां दी जीरांदि ।।60।। अंग 1381
अर्थ: परमात्मा की नौकरी करनी चाहिए और दिल से भ्रम निकाल देना
चाहिए। भाव कि मन अनेकों ओर भटकता है, वह टिक जाए तो एक दृढ़ विश्वास हो। दरवेश यानि
फकीर के लिए उचित है कि वृक्षों सा हौंसला हो। वृक्ष अडोल रहता है, छाया और फल देता
है। काटने के लिए कुल्हाड़ा उठाते हैं फिर भी शान्त रहता है। कई अज्ञानी और अल्प
बुद्धि वाले लोग दरवेशों की निंदा करते हैं उस समय निँदा सुनकर भी दरवेश शाँत रहे।
जैसे वृक्ष से फूल और फल की आस की जाती है, वैसे ही दरवेश की आत्मिक कमाई से
दुनियावी लोग दुख और इच्छाएँ पूर्ण करने के लिए वरदान माँगते हैं। वह उनमें बाँटे,
क्रोध न करे और ईश्वर से प्राप्त उन शक्तियों का मूल्य न माँगे।
फरीदा सोई सरवरू ढूढि लहु जिथहु लभी वथु ।।
छपड़ि ढूढै किआ होवै चिकड़ि डुबै हथु ।।53।। अंग 1380
पानी, सरोवर, झील या मनुष्य द्वारा निर्मित अच्छे तालाब में भी
होता है और छपड़ी में भी। पर दोनों में अन्तर है। सरोवर में तो कमल फूल अथवा और
पदार्थ होते हैं, पर गँदी नालियों का पानी एकत्रित होकर बने हुए छप्पड़ में जाकर गार
ही बन जाता है। उसमें से कीचड़ के अलावा क्या मिलेगा। इस सलोक का अँतरीम भाव यह है
कि जिसने फकीरी धारण करनी है वह अच्छा मुर्शिद यानि गुरू धारण करे जिससे परमात्मा
की कृपा हासिल हो सके, क्योंकि पाखण्डी अथवा कम ज्ञान वाले से कुछ भी प्राप्त नहीं
हो सकता।
फरीदा काले मैडे कपड़े काला मैडा वेसु ।।
गुनही भरिआ मै फिरा लोकु कहै दरवेसु ।।61।। अंग 1381
अर्थ: सूफी फकीरों वाला लिबास देखकर लोग यह समझते हैं कि वह
दरवेश है, पर होते हैं गुनहगार। लोग धोखा खा जाते हैं। वह लोगो को धोखा देकर दुगना
गुनाह करते हैं।
फरीद जी के उपदेश ने उन दोनों फकीरों की जीवन अवस्था बदल दी। उनके दिल की मैल उतर
गई और व सच्चे फकीर बन गए। उनकी आँखों में इलाही नूर आ गया।