8. फरीद जी एक उपदेशक
फरीद जी परमात्मा के सम्पूर्ण भक्त थे। आप चौबीस (24) घण्टे ही बँदगी करते रहते।
फरीद जी फरमाते हैं कि रातें बहुत लम्बी हैं, यदि भजन बँदगी न करें तो रात बीतती नहीं।
शरीर थक जाता है और पसलियाँ जकड़ जाती हैं। इधर उधर पलट-पलटकर रात्री के बीतने और
सूर्य उदय की प्रतीक्षा की जाती है। उनका जीवन धिक्कार योग्य है जो स्वयँ कुछ नहीं
करते और बेगानी आस ऊपर जीते हैं। फरीद जी के समय भारत और दूसरे एशियाई देशों में
मुस्लमान और ईसाई मत को छोड़कर बाकी सभी धर्मों के लोग देवी-देवताओं की मर्यादा में
ग्रस्त थे। (भारत में तो आज भी हैं) लाखों इष्टों के भिन्न मन्दिर कायम हो चुके थे।
चार वर्ण, जात-पात लड़ाई-झगड़े बहुत थे। ब्राहम्ण अपनी बुद्धि और कई प्रकार के भ्रम
में डालकर भोले भाले लोगों को लूटते जा रहे थे। कुछ वर्णों को अछूत करार देकर उन्हें
धार्मिक कार्यों में भाग लेने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया। ऐसे वातावरण में
बहुत सारे लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया जो एक ईश्वर, एक खुदा में विश्वास रखता था।
इस लहर ने हजारों लाखों भारतियों को मुस्लमान बना दिया और समानता प्रदान करने का
कार्य किया। इस्लाम के प्रचार के लिए सबसे पहले सुफी फकीर आए। उस समय दिल्ली में
ख्वाजा कुतबदीन बखतिआर काकी इस्लाम का प्रचार करता था। पँजाब में इस प्रकार के
प्रचार की कमी थी। काकी जी ने शेख फरीद जी को पँजाब में मेल-मिलाप, बँदगी और मानव
ज्ञान का प्रचार करने के लिए भेजा। शेख फरीद जी अभी दिल्ली में ही थे जब उनके
श्रद्धालू हजारों में हो गए। श्रद्धालू रोज आकर डेरे पर बैठे रहते, कोई मन की शान्ति
माँगता, कोई पुत्र का दान, कोई शारीरिक कष्टों के निवारण के लिए तावीत आदि माँगता।
सुबह से शाम तक भीड़ लगी रहती। शेख फरीद जी को बँदगी करने का समय मिलना दूभर हो गया
आप शीघ्र ही तँग आ गए और दिल्ली छोड़कर हाँसी चले गए। वहाँ आप लगभग 20 वर्ष रहे। जिस
प्रकार चन्दन की सुगँध छिपती नहीं, हवा उसे दूर-दूर तक ले जाती है। उसी प्रकार फरीद
जी के गुणों की खुशबू भी दूर-दूर तक फैल गई और भक्त अपने दुखड़े लेकर उनके समक्ष
प्रस्तुत होने लगे। फरीद जी ज्यादा देर दुनियाँ से छिप न सके, उन्हें उनके दुख सुनने
ही पड़े। एक दरवेशी की कठिनाइयों को वे अपनी बाणी में इस प्रकार ब्यान करते हैं:
फरीदा दर दरवेसी गाखड़ी चलां दुनीआं भति ।।
बंन्हि उठाई पोटली किथै वंञा घति ।।2।। अंग 1377, 1378
फरीदा दरवेसी गाखड़ी चोपड़ी परीति ।।
इकनि किनै चालीऐ, दरवेसावी रीति ।।118।। अंग 1384
एक दरवेश (फकीर, संत, साधू) का रिश्ता या प्यार दुनियादारी से
ज्यादा और परमात्मा से कम है तो वह दरवेश नहीं। दरवेश ने तो त्यागी बनना है। फरीद
जी ने सबको मन की निरमलता और निमानता (अन्दरूनी गरीबी) का उपदेश दिया। अहँकार,
अभिमान को पूर्ण रूप से खत्म करने के लिए कहा। जब तक निरवैर न हो, तब तक न भक्ति
होती है और न ही सेवा:
फरीदा मनु मैदानु करि टोए टिबे लाहि ।।
अगै मूलि न आवसी दोजक संदी भाहि ।।74।। अंग 1381
उपरोक्त वचन में फरीद जी अहँकारी पुरूष को सम्बोधित करते हुए कह
रहे हैं– हे सज्जन ! यदि नर्क की अग्नि से बचना है तो अपने मन को साफ कर, जैसे किसी
खेत में गड्डे हों, धरती बराबर न हो तो फसल नहीं बोई जा सकती। बोई फसल को पानी नहीं
दिया जा सकता, उसी प्रकार जिस पुरूष के दिल में वैर, विरोध, ईष्या और अहँकार के टोए
और टिब्बे हैं यानि अहँकार भरा हुआ है तो वह चाहे कितनी भी सतसंत करे, नाम बाणी जपे,
उस पर कोई असर नहीं होता। मन की निरमलता के बिना भक्ति नहीं होती।