4. घोर तपस्या करनी
बाबा शेख फरीद जी ने पहले विद्या पढ़ी, उसके साथ ही माता मरीअम जी की प्रेरणा से
इस्लाम की सारी शरअ समझ गए थे। वह निमाज पढ़ते, रोजे रखते तथा कुरान शरीफ का पाठ
प्रत्येक दिन करते। दिल्ली में वह ख्वाजा कुतबदीन बखतिआर काकी के मुरीद बन गए। उनका
आर्शीवाद प्राप्त करके एक हुजरे में बैठकर जुहद यानि तपस्या पर ध्यान दिया। मुर्शिद
ने उन्हें उल्टे खड़े होकर तपस्या करने का आदेश दिया। काकी जी के कारण ही शेख फरीद
जी का विवाह दिल्ली के बादशाह की पुत्री के साथ हुआ। शेख फरीद जी ने जँगलों में
रहकर भी मन की शुद्धता और धैर्य की अवस्था प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की। वह
जँगली वृक्षों के फल और पत्ते ग्रहण करके तपस्या करते रहे। जब तपस्या करके वे घर
वापिस पहुँचे तो माता जी ने उनके जुड़े हुए बाल कँघी से ठीक करने चाहे, परन्तु शेख
फरीद जी ने दर्द अनुभव किया। इस पर माता मी मुस्कराईं और बोलीं: बेटा ! यह तेरे सिर
के बाल हैं, जिसने सवाँरते हुए भी तुझे तकलीफ हो रही है, क्या उन वृक्षों को तकलीफ
नहीं हुई होगी जिनके पत्ते और फल तू खाता रहा ? शेख फरीद जी ने कहा: माता जी ! वह
तो वृक्ष हैं, उन्हें दर्द का आभास किस प्रकार हो सकता है। माता जी ने कहा: बेटा !
वृक्षों और बेलों को भी उसी प्रकार से दर्द का अहसास होता है, जिस प्रकार से मनुष्य
और जीव जँतू आदि को होता है। वह जब सूख जाते हैं तो मर जाते हैं। जब किसी की एक टहनी
सूख जाती है तो समझो वह रोग-ग्रस्त हो गया है। सब में अल्लाह की रूह है, उसी का नूर
है अगर कोई ध्यान दे तो। बेटा तू पीड़ा अनुभव करता है, तेरी तपस्या अभी पूर्ण नहीं
हुई। शेख फरीद जी: क्या मेरी की हुई कमाई व्यर्थ गई। माता जी: हाँ बेटा ! तुझ में
अभिमान है कि तूने भक्ति बहुत की है। तपस्या जब पूर्ण हो जाती है तो मोह माया का
प्रभाव नहीं रहता, भूख प्यास नहीं रहती और दुख सुख सब एक समान प्रतीत होता है। शेख
फरीद जी: जी अच्छा माता जी ! मैं और तपस्या करूँगा, कुछ नहीं खाऊँगा, लकड़ी की रोटी
गले में लटकाकर उसी को चखकर भूख मिटा लिया करूँगा। माता जी ने कहा: बेटा जी !
मुर्शिद भी खोजना होगा। मुर्शिद के आर्शीवाद से ही तपस्या सफल होती है। बाबा फरीद
जी के मुर्शिद काकी जी ने तपस्या करने का आदेश देते हुए एक ढंग “चिल्हा-ए-माअकूस“
बताया। इसके अनुसार वह सिर नीचे और पैर ऊपर रखकर तपस्या करने लगे। वह तपस्या बहुत
कठिन थी, फिर भी आप उसका अभ्यास करते रहे। इसके साथ ही वह दाऊदी रोजे (एक दिन छोड़कर
रोजा रखने की क्रिया) यानि कि दिन रात के सारे समय आप तपस्या में लीन रहते। तपस्या
से उन्होंने मन पर काबू पा लिया और एक करामाती फकीर बन गए।