16. विनम्रता और समय की कद्र
फरीद जी के दरबार में हर प्रकार के आदमी पहुँचते थे। आपकी महिमा बहुत थी। एक बार एक
आदमी आया जो अपने आपको ज्योतिषी, कलाकार, फारसी और अरबी का विद्वान समझता था। फरीद
जी एक पहुँचे हुए दरवेश थे। वह कहे और अनकहे सब हालात का ज्ञान रखते थे। वह उसके मन
की बिरती जानकर मुस्कराए और बोले:
फरीदा जे तू अकलि लतीफु काले लिखु न लेख ।।
आपनड़े गिरीवान महि सिरू नीवां करि देखु ।।6।। अंग 1378
फरीद जी ने उससे कहा– गुरूमुखों ! आप ज्योतिषी हो, लोगों के
भाग्य का चक्र बताते और चतुर होने के कारण लेख भी लिखते हो, पर कभी अपने गिरेबान
में झाँककर देखा है ? जो कुछ कर रहे हो क्या यह असली जीवन उद्देश्य की पूर्ति करता
है ? ज्योतिषी अहँकार से बोला: फरीद जी ! मैं अपने गिरेबान में झाँककर क्यों देखूँ
? मुझ में कोई कमी नहीं। फरीद जी ने निर्भय होकर उत्तर दिया: ज्योतिषी जी ! जो कुछ
कहते हो, यही तो कमजोरी है। अल्लाह के बिना कोई मनुष्य पूर्ण नहीं है। आपके भीतर
अहँकार है और जो कुछ लिखते हो माया के मोह में लिखते हो, लालच है। लालच के वश होकर
झूठ भी बोलना पड़ता है। अनजाने में आपसे किसी का झगड़ा हो गया था। परन्तु आपने उसे
हानि पहुँचाने के लिए अपनी विद्या का दूरूपयोग किया। परन्तु वह शुभ दिल वाला था, आप
उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। क्या यह झूठ है ? फरीद जी के सर्वज्ञान का परिचय देखकर
वह विद्वान फरीद जी के चरणों में गिर पड़ा। फरीद जी ने उपदेश दिया:
फरीदा जो तै मारिन मुकीआं तिन्हा न मारे घुंमि ।।
आपनड़ै घरि जाईऐ पैर तिन्हा दे चुंमि ।।7।। अंग 1378
जिससे आपका बोल-कुबोल हुआ वह अनपढ़ अज्ञानी था और आप विद्वान थे।
एक अनपढ़ अज्ञानी तो भूल करता है वहीं एक बुद्धिमान एँव ज्ञानी पुरूष को यह बात शोभा
नहीं देती। आपको यह करना था कि उसे इल्म कलामों की मुक्कियाँ मारने के विपरीत उसके
घर जाकर उसके पैर पकड़ लेते। आपका क्रोध एँव अभिमान सब खत्म हो जाता और विनम्रता भर
जाती। आग में आग झोंककर आग ठण्डी नहीं होती, पानी डालकर होती है। मारपीट गाली-गलोच
से लड़ाई बढ़ती है और उससे मन की बेचैनी। जगत में बदले की भावना शैतानी भावना है।
रब्बी भावना गल्ती करने वाले को माफ कर देने की है। मुक्की मारने वाले से अनुरोध
किया जाए कि तूँ और मार ले, जिससे तेरा चित्त प्रसन्न हो जाए तो वह खुद लज्जित हो
जाएगा। उसी संगत में एक 80 वर्ष का बुजुर्ग बैठा था जिसे घर वालों ने घर से निकाल
दिया था। अब वह फकीरों के डेरे भ्रमण करके भोजन एकत्रित करता था। उसने फरीद जी से
मन की शाँति एँव दरगाह के तोसे (भोजन) की माँग की, कुछ अपनी जीवन गाथा भी सुनाई तो
फरीद जी ने बचन किया:
फरीदा जां तउ खटण वेल तां तू रता दुनी सिउ ।।
मरग सवाई नीहि जां भरिआ तां लदिआ ।।8।। अंग 1378
अर्थ: हे फरीद ! जब भक्ति, नेकी एँव तपस्या करने का समय था, तब
तूँ दुनियादारी में व्यस्त हो गया। जवानी थी तो स्त्री का प्यार, शराब, कँधे पर
डाँग रखकर सभी का ध्यान खींचने का प्रयास करता रहा और धन कमाने के लिए योग्य-अयोग्य
साधनों का सहारा लेता रहा। अहँकार, वासना, लालच, मोह आदि शैतानी शक्तियों में दीवाना
रहा और किसी गुरू पीर की शरण न ली, समय का सही उपयोग न किया। समय बीत गया तो अब
ख्याल आया, जब मौत की भारी दीवार ऊपर गिरने को तैयार खड़ी है।
देखु फरीदा जि थीआ सकर होई विसु ।।
सांई बाझहु आपणे वेदण कहीऐ किसु ।।10।। अंग 1378
जवानी के समय जो साँसारिक वस्तुएँ शक्कर जैसी मीठी थीं, खुराक,
स्त्री, रूप, पुत्र-पुत्रियाँ एँव धन, वह आज विष रूप प्रतीत होते हैं क्योंकि किसी
ने भी साथ न दिया। बहुओं-बेटों ने घर से निकाल दिया। अपने मालिक के बिना दुख कौन
सुनेगा और मालिक-मुर्शिद तो यानि गुरू तो धारण ही नहीं किया।
फरीदा अखी देखि पतीणीआं सुणि सुणि रीणे कंन ।।
साख पकंदी आईआ होर करेंदी वंन ।।11।। अंग 1378
अर्थ: आँखें देख-देखकर छोटी हो गईं, कान लोगों की बातें
सुन-सुनकर बहरे हो गए या कम सुनाई देने लगा। शरीर का हुलिया बदल गया जिस प्रकार किसी
वृद्ध वृक्ष और उसके पत्तों का रँग और ही हो जाता है।