43. अपने नगर पँडरपुर में वापसी
भक्त नामदेव जी घुमाणा से, जहाँ पर उनका यादगार स्थान देहरा साहिब है, वापिस
महाराष्ट्र में अपने नगर पँडरपुर में आ गए। जहाँ पर इनके वृद्ध माता पिता और इनकी
बहिन और इनकी पत्नी राह देख रहे थे। इनके चार सुपुत्र और चार बहूऐं, एक पोता और एक
सुपुत्री आपके दर्शन पाने के लिए हर समय आपको याद करते रहते थे। जिस समय भक्त
नामदेव जी अपने घर पर पहुँचे तो मानों परिवार में खुशियों का चाँद निकल आया हो, सारे
परिवार का दिल खुशी के मारे उछलने लगा। सारे इलाके में यह खबर जँगल की आग की तरह
फैल गई कि ब्रहम ज्ञानी भक्त नामदेव जी वापिस अपने नगर पँडरपुर में आ गए हैं। वो सभी
ब्राहम्ण जिन्होंने उनको अनेक प्रकार के कष्ट दिए थे उनके दर्शनों के लिए आए और उनके
चरणों में गिरकर अपने अपराधों के लिए माफी माँगी और कहा कि महाराज ! अब कहीं बाहर
नहीं जाना। भक्त नामदेव जी ने सभी को आर्शीवाद देकर निहाल किया भक्त नामदेव जी ने
बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग रामकली“ में दर्ज है:
सभै घट रामु बोलै रामा बोलै ॥
राम बिना को बोलै रे ॥१॥ रहाउ ॥
एकल माटी कुंजर चीटी भाजन हैं बहु नाना रे ॥
असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे ॥१॥
एकल चिंता राखु अनंता अउर तजहु सभ आसा रे ॥
प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे ॥२॥३॥ अंग 988
अर्थ: हे भाई ! परमात्मा सारे शरीरों में व्यापत होकर बोल रहा
है अर्थात हर स्थान पर वह परमात्मा भरपूर हो रहा है। परमात्मा के बिना कौन बोल रहा
है। परमात्मा आप ही हाथी, चींटी, वृक्ष, कीड़े, पतंगे आदि में व्याप्त यानि सभी में
आप ही व्याप्त है। जिस प्रकार से एक मिट्टी से अनेक तरह के बर्तन बनते है, इसी
प्रकार सारे जीव एक ही मिट्टी से बने हैं और इनमें एक ही परमात्मा समाया हुआ है। हे
भाई ! केवल एक परमात्मा का ही चिंतन करो और सारी आशाएँ छोड़ दो। नामदेव जी कहते हैं
कि अगर आप इस प्रकार करोगे तो कामना से रहित हो जाओगे और फिर यह नहीं पहचाना जाएगा
कि कौन दास है और कौन स्वामी अर्थात आपकी परमात्मा से अभेदता हो जाएगी। एक दिन भक्त
नामदेव जी से बहुत सारे ब्राहम्ण मिलने आए तो भक्त नामदेव जी ने बाणी उच्चारण की जो
कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग आसा“ में दर्ज है:
पारब्रह्मु जि चीन्हसी आसा ते न भावसी ॥
रामा भगतह चेतीअले अचिंत मनु राखसी ॥१॥
कैसे मन तरहिगा रे संसारु सागरु बिखै को बना ॥
झूठी माइआ देखि कै भूला रे मना ॥१॥ रहाउ ॥
छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला ॥
संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला ॥२॥५॥ अंग 486
अर्थ: जो परमात्मा को जान लेंगे उनको पदार्थों की आस नहीं भाएगी
क्योंकि वह परमात्मा को याद करते हैं। इसलिए उनका मन परमात्मा चिंता रहित रखता है।
सँसार सागर विषय रूप जल से भरा हुआ है। हे मन ! तूँ इस सँसार की झूठी माया देखकर
भूल गया है। परमात्मा ने मुझे छीपे के घर जन्म दिया है पर गुरू का उपदेश मुझे मिल
गया है। संतों की कृपा से परमात्मा का नाम मिल गया है। सबने कहा: धन्य हो ! महाराज,
धन्य हो ! आपको इस नम्रता ने ही ऊचता के सिहाँसन पर बिठा दिया है। आपमें यह गुण शुरू
से लेकर अंत तक एक ही रहा है। आपने इतनी ऊच पदवी पर पहुँचकर भी अपने निम्न भाव
अर्थात दिल की गरीबी का त्याग नहीं किया, बल्कि यह तो दिनों दिन अधिक होता गया है।