36. वृन्दावन में स्त्रीव्रत उपदेश
भक्त नामदेव जी अपनी यात्रा करते हुए श्री कुष्ण जी की नगरी वृन्दावन में पहुँचे।
भक्त नामदेव जी तो उसी पर ही उपदेश करते थे, जिसमें उन्हें कोई कमजोरी दिखे या
कर्मकाण्ड और पाखण्ड दिखे। वृन्दावन में लोग स्त्रीव्रत में ढीले थे अर्थात अपनी
स्त्री के होते हुए भी दूसरी स्त्रियों से संबंध रखते थे। तो उन्होंने इसी पर उपदेश
देने के लिए एक दिन दीवान में बाणी का उच्चारण किया जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब
जी में “राग भैरउ“ में दर्ज है:
घर की नारि तिआगै अंधा ॥ पर नारी सिउ घालै धंधा ॥
जैसे सिम्बलु देखि सूआ बिगसाना ॥ अंत की बार मूआ लपटाना ॥१॥
पापी का घरु अगने माहि ॥ जलत रहै मिटवै कब नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
हरि की भगति न देखै जाइ ॥ मारगु छोडि अमारगि पाइ ॥
मूलहु भूला आवै जाइ ॥ अमृतु डारि लादि बिखु खाइ ॥२॥
जिउ बेस्वा के परै अखारा ॥ कापरु पहिरि करहि सींगारा ॥
पूरे ताल निहाले सास ॥ वा के गले जम का है फास ॥३॥
जा के मसतकि लिखिओ करमा ॥ सो भजि परि है गुर की सरना ॥
कहत नामदेउ इहु बीचारु ॥
इन बिधि संतहु उतरहु पारि ॥४॥२॥८॥ अंग 1164, 1165
अर्थ: "(धर्म से अँधा आदमी घर की नारी को छोड़कर पराई से रिश्ता
जोड़ता है। जिस प्रकार तोता सिँबल वृक्ष देखकर खुश होता है। अंत में उसी के साथ
चिपककर अपने प्राण दे देता है। पापी का घर आग में है। सदा ही जलता रहता है और उसका
क्रोध कभी भी दूर नहीं होता। परमात्मा की भक्ति, सतसंग में जाकर नहीं देखता। रास्ते
को छोड़कर कुराहे पर जाता है। अपनी जड़ से भूला हुआ आता जाता, जन्मता और मरता ही रहता
है। अमृत अर्थात नाम को छोड़कर विषय-विकार अर्थात जहर को खाता है। जिस प्रकार वेश्वा
का अखाड़ा लगता है और वह कपड़े पहिनकर श्रँगार करती है। ताल और सुरों को देखती है।
अंत में उसके गले में यमदूतों का फन्दा पड़ेगा। जिसके मस्तक पर अच्छे कर्म लिखे हों,
वो दौड़कर सतिगुरू की शरण में जाता है। नामदेव जी कहते हैं, हे मित्रों ! यह विचार
है। इसी विधी से सँसार सागर से पार उतरोगे। जब भक्त नामदेव जी यह उपदेश कर रहे थे
तो हजारों की भीड़ लगी हुई थी। जिन्होंने यह उत्तम उपदेश सुनकर अपने विकारों को छोड़ने
का प्रण लिया और अपना आगे का समय सँवार लिया। भक्त नामदेव जी यहाँ पर अपने सत्य
उपदेश की अमृत वर्षा करते हुए और हजारों भटके हुए इन्सानों को तारते हुए सत्य मार्ग
पर लगाकर हरिद्वार की तरफ चल दिए।