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32. धर्मराम को उपदेश

द्वारिका नगरी में यह बात मशहूर हो गई कि महाराष्ट्र के महापुरूष भक्त नामदेव जी यहाँ पर आए हुए हैं। जिस स्थान पर भक्त नामदेव जी ने आसन किया हुआ था वहाँ पर अनेक आदमी दर्शनों के लिए आते और धर्म मार्ग पर विचार करके सत्य उपदेश धारण करते। द्वारिका के ही एक धर्मराम नाम के ब्राहम्ण को जब इस बात का पता लगा कि श्री पँडरपुर वाले भक्त नामदेव जी यहाँ पर आए हुए हैं तो वह सतसंग करते हैं और बेअंत आदमी उसकी तरफ से उपदेश लेकर उनके श्रद्धालू बन गए हैं तो वह बहुत जल-भून गया। वह सोचने लगा कि धर्म उपदेश करना तो केवल ब्राहम्णों का हक है और यह क्षत्रिय होकर हमारा हक छीन रहा है। अगर कभी मौका मिला तो उससे धर्म चर्चा करके उसे निरूत्तर करूँगा। भक्त नामदेव जी तो अर्न्तयामी थे। वह एक दिन आप ही उसके पास चले गए। ब्राहम्ण धर्मराम कथा कर रहा था और हजारों की तादात में लोग बैठे हुए थे। धर्मराम ने भक्त नामदेव जी को बड़े आदर और सत्कार से अपने पास बिठाया। भक्त नामदेव जी ने ब्राहम्ण धर्मदास का ठाठ-बाठ देखकर सोचा कि यह तो बड़े जँजाल में फँसा हुआ है। ब्राहम्ण धर्मराम अपने अहँकार में बोला– महाराज ! कुछ बचन बिलास करो। भक्त नामदेव जी ने बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग सोरठि“ में दर्ज है:

अणमड़िआ मंदलु बाजै ॥ बिनु सावण घनहरु गाजै ॥
बादल बिनु बरखा होई ॥ जउ ततु बिचारै कोई ॥१॥
मो कउ मिलिओ रामु सनेही ॥ जिह मिलिऐ देह सुदेही ॥१॥ रहाउ ॥
मिलि पारस कंचनु होइआ ॥ मुख मनसा रतनु परोइआ ॥
निज भाउ भइआ भ्रमु भागा ॥ गुर पूछे मनु पतीआगा ॥२॥
जल भीतरि कुम्भ समानिआ ॥ सभ रामु एकु करि जानिआ ॥
गुर चेले है मनु मानिआ ॥ जन नामै ततु पछानिआ ॥३॥३॥ अंग 657

अर्थ: "(यह सँसार इस प्रकार से झूठा है। जिस प्रकार कोई कहे कि बिना छड़ी के ढोल बज रहा हैं और बिन बादल ही वर्षा हो रही है। उक्त दृष्टान्त की तरह कोई विचार करे तो सँसार मिथ्या समान नजर आएगा। मुझे प्यारा परमात्मा मिल गया है, जिस कारण यह देह सफल हो गई है। जिस प्रकार लोहा पारस के छूने से सोना हो जाता है और रत्न धागे से पिराए जाते हैं। इसी प्रकार गुरू से मिलकर में शुद्ध हो गया हूँ और मेरे मन रूपी धागे में राम नाम रूपी रत्न पिराए गए हैं। जब अपने आप में प्रकाश हुआ तो सारा ही भ्रम दूर हो गया। गुरू की तरफ से पूछा तो मन भरोसे वाला हो गया। जिस प्रकार से पानी के घड़ें में पानी टिक जाता है, अर्थात जिस प्रकार घड़े आदि का पानी सागर के पानी से मिल जाता है। इसी प्रकार उस परमात्मा को मेंने सारे सँसार में एक करके जाना है। दास यानि नामदेव का मन गुरू में चला गया है और परमात्मा को पहचान लिया है।)" लोगों पर इस बाणी का बड़ा ही गहरा असर हुआ, पर ब्राहम्ण धर्मराम जँजाल में फँसा होने के कारण प्रसन्न नहीं हुआ, क्योंकि उसे अपनी विद्या का घमण्ड था और वह इसी अहँकार में अपनी बात करना चाहता था। ब्राहम्ण धर्मराम बोला– महाराज ! आप यह बताओ कि सृष्टि किस प्रकार बनी ? भक्त रविदास जी ने ब्राहम्ण धर्मराम के इस गहरे प्रश्न का उत्तर इस बाणी से दिया जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग धनासरी“ में दर्ज है:

पहिल पुरीए पुंडरक वना ॥
ता चे हंसा सगले जनां ॥
क्रिस्ना ते जानऊ हरि हरि नाचंती नाचना ॥१॥
पहिल पुरसाबिरा ॥ अथोन पुरसादमरा ॥
असगा अस उसगा ॥ हरि का बागरा नाचै पिंधी महि सागरा ॥१॥ रहाउ ॥
नाचंती गोपी जंना ॥ नईआ ते बैरे कंना ॥
तरकु न चा ॥ भ्रमीआ चा ॥
केसवा बचउनी अईए मईए एक आन जीउ ॥२॥
पिंधी उभकले संसारा ॥ भ्रमि भ्रमि आए तुम चे दुआरा ॥
तू कुनु रे ॥ मै जी ॥ नामा ॥ हो जी ॥
आला ते निवारणा जम कारणा ॥३॥४॥ अंग 693

अर्थ: "(पहले परमात्मा का प्रकाश कमल फूल जैसा बना उस कमल से ब्रहमा उत्पन्न हुए और उससे आगे सारा सँसार। (प्रशन) विष्णु ब्रहमा से पहले किस प्रकार बना ? (उत्तर) परमात्मा की शक्ति से। नोट: श्री गुरू नानक देव जी की बाणी श्री जपुजी साहिब जी में लिखा है कि– “एका माई जुगति विआई तीन चेले परवाणु।। अर्थात परमात्मा की आज्ञा से माया प्रसुति हुई और उसके प्रत्यक्ष रूप से तीन बेटे हुए– 1. ब्रहमा, 2. विष्णु और 3. शिव। लेकिन इनके हाथ में कुछ भी नहीं है, सँसार की कार परमात्मा के हुक्म से चलती है। पहले पहल परमात्मा ने इच्छा की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ। तदउपरान्त परमात्मा से माया बनी और उस माया से सारी सृष्टि हुई। माया और शक्ति का मेल होने से सारा सँसार बना। यह सारा सँसार उस परमात्मा के बालक हैं अर्थात सभी जीवों में वह आप ही नाच कर रहा है, खेल कर रहा है और व्यापत है। अगर कुँऐं की टिंडों में पानी होता है अर्थात जिस प्रकार कुँऐं की टिंडों में पानी नाचता है, इसी प्रकार से परमात्मा के सभी में व्यापक होने के कारण सारी इन्द्रियाँ नाच रही हैं अर्थात नेत्र देखते हैं, हाथ-पैर काम कर रहे हैं यानि उसकी सत्ता के बिना कोई नहीं। (परमात्मा के बोल)– यह सँसार मेरा रूप है। इस बात को सच जानकर अपने दिल में बसा। हे भाई ! जिसे मुक्त होने की जरूरत है वो परमात्मा के आगे इसी प्रकार से विनती करे। हम तो जन्म-जन्म से भटकते हुए तेरे दर पर आए हैं। तूँ कौन है ? तो जीव फिर इस प्रकार अधीनगी से उत्तर दे– “जी मैं नामा हूँ।“ क्या चाहता है ? तो यह उत्तर दो कि सँसार रूपी अँधे कुँऐं से बाहर निकाल लो।)"

इसके बाद भक्त नामदेव जी ने परमात्मा की उस्तति में एक और बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग प्रभाती“ में दर्ज है:

आदि जुगादि जुगादि जुगो जुगु ता का अंतु न जानिआ ॥
सरब निरंतरि रामु रहिआ रवि ऐसा रूपु बखानिआ ॥१॥
गोबिदु गाजै सबदु बाजै ॥
आनद रूपी मेरो रामईआ ॥१॥ रहाउ ॥
बावन बीखू बानै बीखे बासु ते सुख लागिला ॥
सरबे आदि परमलादि कासट चंदनु भैइला ॥२॥
तुम्ह चे पारसु हम चे लोहा संगे कंचनु भैइला ॥
तू दइआलु रतनु लालु नामा साचि समाइला ॥३॥२॥ अंग 1351

अर्थ: परमात्मा युगों से पहले भी और युगों के प्रारम्भ में भी था और युगों के अंत में भी युगों युग रहेगा। पर उसका अंत किसी ने नहीं जाना। सभी मैं वह परमात्मा एक रस व्याप्त है। यह मैंने उसका रूप कथन किया है। सभी में परमात्मा बोल रहा है। शब्द रूप होकर सभी में बज रहा है। मेरा परमात्मा आनन्द रूप है। जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष की सुगन्धी जँगल के अन्य वृक्षों को स्वभाविक ही लग जाती है। सभी का आदि यानि शुरूआत तूँ है और परमल आदि सुगन्धी भी तूँ ही है और सारी लकड़ियों को यानि जीवों को चन्दन की सुगन्धी की तरह सबको मिल रहा है अर्थात सभी में प्रकाश है। हम नीचों को ऊच करने वाले परमात्मा आप पारस हो और हम लाहे हैं, तेरे से मिलकर सोना बन गए हैं। तूँ दयाल, रत्न लाल (तेरा नाम) है और नामदेव जी कहते हैं कि मैं तेरे सच स्वरूप में समाया हुआ हूँ।)" ऊच विद्या, नम्रता, गुढ़ ज्ञान और शान्ति भरपूर बचन सुनकर ब्राहम्ण धर्मराम जी का धमण्ड टूट गया। उसका ख्याल था कि नामदेव कोई साधारण सा अनपढ़ साधू है, पर उसको अब पता लगा कि मेरा मुकाबला एक तकड़े विद्वान, ज्ञानवान और परमात्मिक ज्ञान रखने वाले बन्दे के साथ हो गया है और जो सरब गुण भरपूर है। ब्राहम्ण धर्मराम ने विनती की: हे महाराज जी ! आप इस दर्जें पर किस युक्ति के द्वारा पहुँचे हो ? भक्त नामदेव जी बोले: ब्राहम्ण देवता ! मैं तो तुच्छ बुद्धि वाला जीव हूँ। अगर उस परमात्मा की कृपा हो जाए तो सब कुछ हो जाता है। ब्राहम्ण धर्मराम ने फिर विनती की: हे महाराज जी ! मुझे समझाने के लिए अपने अमृत वचन उच्चारण करो।

भक्त नामदेव जी ने गुरूबाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में "राग धनासरी" में दर्ज है:

दस बैरागनि मोहि बसि कीनी पंचहु का मिट नावउ ।।

अर्थ: "(दस बैरागन इन्द्रियाँ मैंने वश में कर ली हैं। और पाँच- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार आदि का नाम मिटा दिया है। सत्तर परदों में जो मन बुद्धि रहने वाले है, उनको मैंने परमात्मा के नाम रूपी अमृत से भरपूर कर लिया है और उसी सरोवर में स्नान कराता हूँ और विषय रूपी जहर को इसमें से निकालता हूँ अर्थात मारकर निकालता हूँ। परमात्मा की तरफ जाता हूँ तो फिर वापिस सँसार की तरफ नहीं आऊँगा। अमृत रूप बाणी दिल में उचारता हूँ और अपनी आत्मा को समझाता हूँ। ज्ञान रूपी कुल्हाड़ी से मोह रूपी वृक्ष को काट दिया है और विनती करके गुरू के चरणों पर गिर जाता हूँ। सँसार की तरफ से उलट होकर मैं उनका सेवक हो गया हूँ और आगे से उनका डर मन में डालता रहता हूँ। इस सँसार से तब ही छुटकारा पाएँगे। जब आप दिलवाओ और माया में खचित नहीं होंगे। माया नाम गर्भ जोनी का है। जिसको त्यागकर परमात्मा का दर्शन पाऊँगा। इस रीति से परमात्मा की भक्ति करते हैं, उन्होंने सारे दुख दूर कर दिए हैं। नामदेव जी कहते हैं कि हे भाईयों ! बाहर क्यों भटकते हो। इस सँयम से परमात्मा को प्राप्त करते हैं और प्राप्त करो।)" ब्राहम्ण धर्मराम और हजारों की गिनती में सँगत (लोगों का समूह), भक्त नामदेव जी के उपदेश सुनकर अति प्रसन्न हुए और ज्ञान की प्राप्ति करके उस परमात्मा के भजन में जुड़ गए। धर्मराम अपनी विद्या का घमण्ड छोड़कर भक्त नामदेव जी का पक्का श्रद्धालू बन गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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