31. द्वारिका में उपदेश
भक्त नामदेव जी यात्रा करते हुए द्वारिका नगरी में पहुँच गए। आप जिस मन्दिर में गए
वहाँ पर ही पूजारीगण हाथ फैला-फैलाकर माया माँगते और मूर्तियों के आगे माथा टेकने
के लिए कहते। भक्त नामदेव जी ने इस विचित्र लीला को देखकर कहा– हे परमात्मा ! किसी
को तो आपने बादशाह बना दिया है और कोई हाथ फैलाकर पैसे माँग रहा है। हे परमात्मा
तूँ बेअंत है, तूँ मालिक है, जहाँ किसी को रखें वहीं तेरी कृपा है। इस प्रसँग पर
उन्होंने बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग गूजरी“ में
दर्ज है:
जौ राजु देहि त कवन बडाई ॥ जौ भीख मंगावहि त किआ घटि जाई ॥१॥
तूं हरि भजु मन मेरे पदु निरबानु ॥ बहुरि न होइ तेरा आवन जानु ॥१॥ रहाउ ॥
सभ तै उपाई भरम भुलाई ॥ जिस तूं देवहि तिसहि बुझाई ॥२॥
सतिगुरु मिलै त सहसा जाई ॥ किसु हउ पूजउ दूजा नदरि न आई ॥३॥
एकै पाथर कीजै भाउ ॥ दूजै पाथर धरीऐ पाउ ॥
जे ओहु देउ त ओहु भी देवा ॥ कहि नामदेउ हम हरि की सेवा ॥४॥१॥ अंग 525
अर्थ: "(हे परमात्मा ! अगर तूँ राज दे तो कोई वडियाई नहीं
अर्थात फायदा नहीं और अगर तूँ भीख भी मँगवा ले तो भी कुछ घाटा नहीं होने वाला। हे
मेरे मन ! जिसने सारी सृष्टि साजी है उसे छोड़कर भ्रम में भूला फिरता है अर्थात
परमात्मा का नाम जपना छोड़कर कृत्रिम वस्तुओं यानि देवी-देवताओं की पूजा ब्रहमा,
विष्णु, शिव की पूजा और अन्य कर्मकाण्डों में लगा हुआ है। जिसको परमात्मा तूँ आप बता
देता है, उसे इस रहस्य का पता लग जाता है। जिसको पूर्ण सतिगुरू का मेल हो जाता है
उसके सारे सँशय और दुविधाएँ दूर हो जाती हैं। मैं किस की पूजा करूँ, मुझे तो तेरे
अलावा और कोई दिखाई ही नहीं देता अर्थात मैं इन देवी-देवताओं की पूजा क्यों करूँ,
जबकि यह तो किसी को मूक्ति दे ही नहीं सकते, इसलिए मैं तो मुक्तिदाता परमात्मा का
नाम जपता हूँ। नामदेव जी पूजारियों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि एक पत्थर की पूजा
करते हो और दूसरे तरह के पत्थर पर पैर रखते हो तो जिस पर पैर रखते हो उसे देवता क्यों
नहीं कहते। मूर्ति पूजा सब मन के वहम हैं, इससे होता कुछ नहीं है, केवल पूरा जीवन
बर्बाद ही होता है और अन्त समय में मिलता कुछ नहीं। नामदेव जी कहते हैं कि मैं तो
केवल परमात्मा की पूजा करता हूँ, सेवा करता हूँ। परमात्मा का नाम जपना ही उसकी पूजा
या सेवा है।)" इस प्रकार भक्त नामदेव जी ने द्वारिका में कुछ दिन व्यतीत किए। भक्त
नामदेव जी जिस भी मन्दिर में जाते थे वहाँ पर ही परमात्मा के नाम सिमरन का प्रवाह
चलाते थे और लोगों को कृत्रिम वस्तुओं और देवी-देवताओं की पूजा से हटाकर केवल
परमात्मा के नाम सिमरन से जोड़ते थे।