30. घोड़ी का प्रसँग
भक्त नामदेव जी महाराज अपनी यात्रा पर अपने अगले पड़ाव द्वारिका जा रहे थे। रास्तें
में जिस स्थान पर रात हो जाती तो वहाँ आराम करते और फिर सुबह अपनी मँजिल की तरफ चल
देते। रास्ते भर वह परमात्मा के ज्ञान का प्रचार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। भक्त
नामदेव जी के मन में विचार आया कि कोई साथी या सवारी मिल जाए तो रास्ता आराम से कट
जाएगा। अभी भक्त नामदेव जी के मन में यह विचार आया ही था कि उस सरब व्यापी परमात्मा
ने उनकी श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिए एक खेल रचा। उसने अपनी शक्ति को एक पठान का
रूप देकर घोड़ी पर सवार करके वहाँ पर भेज दिया। उस पठान मुगल ने आते ही भक्त जी को
कहा कि भाई ! मेरी घोड़ी का बच्चा इतना छोटा है कि वह चल नहीं सकता, इसलिए इसे उठा
लो और मेरे साथ चलो। भक्त नामदेव जी पहले से ही बहुत थकावट महसूस कर रहे थे और
उन्होंने सोचा था कि कोई सवारी मिल जाए, परन्तु यहाँ पर तो इसका उल्टा ही हो गया और
उल्टा भार उठाकर चलना होगा। उस समय ही ब्रहमज्ञानी और परमात्मा को सभी स्थानों पर
जानने वाले भक्त नामदेव जी ने सोचा कि सारे कार्य तो उसकी मर्जी से होते हैं, फिर
यह कार्य उस परमात्मा की मर्जी के बिना किस प्रकार से हो सकता है और यह विचार आते
ही उन्हें अनुभव हो गया कि यह खेल भी उसी परमात्मा ने ही रचा है और मेरे धन्य भाग्य
हैं कि उसकी शक्ति अथवा वह स्वयँ ही मुगल रूप में आकर मुझे हुक्म कर रहा है। यह तो
मेरे धन्य भाग्य हैं। उन्होंने झट से मुगल से कहा कि सत्य वचन ! और उन्होंने बच्चे
को तुरन्त उठा लिया और उसके साथ चलने लगे। उन्होंने चलते-चलते यह बाणी उच्चारण की
जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग तिलंग“ में दर्ज है:
हले यारां हले यारां खुसिखबरी ॥ बलि बलि जांउ हउ बलि बलि
जांउ ॥
नीकी तेरी बिगारी आले तेरा नाउ ॥१॥ रहाउ ॥
कुजा आमद कुजा रफती कुजा मे रवी ॥ द्वारिका नगरी रासि बुगोई ॥१॥
खूबु तेरी पगरी मीठे तेरे बोल ॥ द्वारिका नगरी काहे के मगोल ॥२॥
चंदीं हजार आलम एकल खानां ॥ हम चिनी पातिसाह सांवले बरनां ॥३॥
असपति गजपति नरह नरिंद ॥ नामे के स्वामी मीर मुकंद ॥४॥२॥३॥ अंग 727
अर्थ: उस मुगल ने कहा: हे मित्र ! खुशखबरी अर्थात प्रसन्न हो
यानि खुश हो। भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- मैं चार बार बलिहारी जाता हूँ। यह तेरी
बिगार अर्थात कार्य मुझे अच्छा लगता है। तेरा नाम आला अर्थात सुन्दर है। हे परमात्मा
की जोत (मुगल मुरत) कहाँ से आए हो, कहाँ जाओगे ? हे द्वारिका नगरी जाने वाले मुगल !
सच बता, तेरी पगड़ी बड़ी सुन्दर है और बोल बहुत मीठे हैं। भला द्वारिका नगरी में मुगल
पठान कहाँ से आ गए। तूँ वहाँ क्यों जा रहा है ? हे परमात्मा की भेजी गई अकाल शक्ति
! हे सारे खेल करने वाले सरब व्यापी ! कई हजारों की गिनती में सृष्टि जो केवल तुझे
जान रही है। हे सुन्दर रँग वाले मुगल रूपी ! मेरे अदभुत पातशाह, मैंने तुझे एक ही
जाना और माना है। सात मूँह वाले घोड़े का पति सूर्य, ऐरावत हाथी पति इन्द्र, मनुष्यों
का राजा आदि परन्तु नामदेव का पातशाह यानि परमात्मा तो सबसे बड़ा है। भक्त नामदेव जी
ने अपने मन मन्दिर में उस अकालपुरूख परमात्मा के रज-रज के दर्शन किए और प्रेम वाली
अवस्था में एक और बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग टोडी“
में दर्ज है:
तीनि छंदे खेलु आछै ॥१॥ रहाउ ॥
कुमभार के घर हांडी आछै राजा के घर सांडी गो ॥
बामन के घर रांडी आछै रांडी सांडी हांडी गो ॥१॥
बाणीए के घर हींगु आछै भैसर माथै सींगु गो ॥
देवल मधे लीगु आछै लीगु सीगु हीगु गो ॥२॥
तेली कै घर तेलु आछै जंगल मधे बेल गो ॥
माली के घर केल आछै केल बेल तेल गो ॥३॥
संतां मधे गोबिंदु आछै गोकल मधे सिआम गो ॥
नामे मधे रामु आछै राम सिआम गोबिंद गो ॥४॥३॥ अंग 718
अर्थ: स्वछँद में तीन-तीन हिस्सों के अच्छे प्रसँगों के खेल कथन
किए हुए आऐंगे। कुम्हार के घर बर्तन (हांडी) अच्छे हों तो उसका घर अच्छा लगता है।
राजा के घर सैना (सांडी) हो तो उसका घर अच्छा मालूम होता है। ब्राहम्ण के घर विद्या
(रांडी) हो तो उसका घर अच्छा सजता है। यह प्रसँग हांडी, रांडी और सांडी का है। बनिए
के घर या दुकान पर हींग हो तो उसकी दुकान शुभाऐमान है। भैंस के माथे पर कुण्डली वाले
सींग हो तो वह अच्छी लगती है। इस बाणी का आन्तरिक भाव यह है कि जिस प्रकार से उक्त
चीजें, उक्त घरों में अच्छी लगती हैं। ठीक उसी प्रकार से नामदेव जी कहते हैं कि मेरे
दिल में अर्थात मुझे वह परमात्मा अच्छा लगता है। भक्त नामदेव जी ने इस बाणी की
समाप्ति करके आँखें खोली तो वहाँ पर न तो मुगल था, न घोड़ी और न ही उसका बच्चा था।