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23. ब्राहम्णों की अज्ञानता

आप सब कहोगे कि हम तो केवल ब्राहम्णों की ही चर्चा कर रहे हैं। लेकिन क्या करें ब्राहम्णों भी तो भक्त नामदेव जी को नीचा दिखाने का बार-बार प्रयास करते ही रहते थे। उस समय धर्म के ठेकेदार तो ब्राहम्ण अपने आप को समझते थे। ब्राहम्णों ने लोगों को कई प्रकार के भूलेखों, वहमों और भ्रमों में डाल रखा था। जिसके सुधार का बीड़ा भक्त जी ने उठा रखा था और इसलिए ब्राहम्ण उनकी बेइज्जती करने का और उन्हें नीचा दिखाने को कोई मौका ढूँढते रहते थे। महाराष्ट्र के हजारों आदमी भक्त नामदेव जी से दीक्षा लेकर उनके श्रद्धालू बन चुके थे और कई ब्राहम्ण भी उनके चमत्कार और परमात्मिक शक्ति देखकर अपना अज्ञान का अँधेरा भूलाकर ज्ञान प्राप्त कर चुके थे, परन्तु एक भारी मण्डली ऐसी भी थी जो भक्त नामदेव जी को हर तरह से, हर समय और हर किस्म का नुकसान पहुँचाने के लिए तैयार रहती था। एक समय की बात है भक्त नामदेव जी एक मन्दिर में ठण्डा स्थान देखकर आराम करने के लिए बैठ गए। ये बात ब्राहम्णों की मण्डली को मालूम हो गई और वह अपने आदमी एकत्रित करके उस मन्दिर में आ गए और भक्त नामदेव जी को जान से मार देने का सँकल्प करके मन्दिर के दरवाजे अन्दर से बन्द कर लिए। जब भक्त नामदेव जी की नींद इस शोर से खुली तो उन्होंने अपने आसपास हाथों में डँडे लिए हुए इन ब्राहम्णों की मण्डली को देखा। भक्त नामदेव जी हँस पड़े। यह देखकर वह ब्राहम्णों की मण्डली क्रोध में आ गई और वह उन पर टूट पड़े। यहाँ पर परमात्मा ने एक कौतक रचा। वह यह कि हर एक ब्राहम्ण को दूसरा ब्राहम्ण भक्त नामदेव जी का ही रूप लग रहा था। वह आपस में ही एक-दूसरे को मारने लगे। भक्त नामदेव जी राजी खुशी अपने घर पर पहुँच गए। उधर ब्राहम्ण आपस में ही एक-दूसरे को मार-मारकर बेहोश हो गए। जब होश आई तो वह जाने के लिए उठे, लेकिन यह क्या ! दरवाजा तो बन्द था और बन्द भी ऐसा कि किसी भी यत्न से नहीं खुलता था। वो सब बहुत निराश हुए और थक हारकर गिर पड़े। तभी अचानक ही आकाशवाणी हुई कि: अरे मूर्खों ! तुम हमेशा उस नेक हरि भक्त नामदेव जी से वैर-विरोध रखते हो, तुम्हारी सजा यही है कि तुम इस मन्दिर में ही दम घुटकर मर जाओ। अब सारे के सारे ब्राहम्ण अपनी भूल का पश्चात्ताप करने लगे और अपनी भूल की क्षमा माँगने लगे और हाथ जोड़कर कहने लगे कि हम कभी भी उस हरि भक्त, नामदेव जी से वैर-विरोध नहीं करेंगे। तभी अचानक दरवाजा खुल गया और सारे ब्राहम्ण अपने-अपने घरों को गए और सारी विरोधता छोड़कर नामदेव जी पर भरोसा करने के लिए तत्पर हो गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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