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21. देहुरा फिरना या मन्दिर का घुमना

अब तक सारे महाराष्ट्र प्राँत में भक्त नामदेव जी का यश फैल चुका था। जैसे-जैसे इनके उपदेश की शोभा फैल रही थी वैसे-वैसे उनके उपदेश सुनने के लिए लोग दूर-दूर से मिलकर आते थे। इनके उपदेश सुनकर और नाम दान लेकर भक्तगण इनका यश गाते हुए जाते थे। अब तब बेअंत स्त्री और पुरूष इनके उपदेश लेकर इनके पैरेकार बन चुके थे। पर अभी भी कई जाति अहँकारी और विद्या अभिमानी ब्रहाम्ण उनके खिलाफ निन्दा करते फिरते थे। जिसका बहुत बड़ा कारण यह था कि भक्त नामदेव जी का उपदेश जात-पात के विरूद्व और कृत्रिम वस्तुओं की पूजा के खिलाफ होता था और इसके असर से हजारों आदमी, पाखण्डी ब्राहम्णों के जाल में से निकलकर स्वतँत्र हो चुके थे। इसलिए अपने रोजगार में घाटा अनुभव करने वाले ब्राहम्ण इनके विरूद्ध हो गए और उनसे बदला लेने की ताड़ में फिरते थे। परन्तु वह भक्त नामदेव जी का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके बल्कि भक्त नामदेव जी ने अपने इरादे को और भी पक्का और दृढ़ कर लिया। भक्त नामदेव जी ने इरादा किया कि हरि नाम का कीरतन और पाखण्ड खण्डन का प्रचार किसी भारी जनसमूह में करना चाहिए। महाराष्ट्र प्राँत में “अवँडा नाग नाथ“ अथवा “ओढिला नाग नाथ“ जो कि एक प्रसिद्ध नगर है और जहाँ एक आलीशन मन्दिर है, यहाँ पर महाशिवरात्री का भारी मेला लगता है। इस मेले में भारी भीड़ दूर-दूर से आती है। भक्त नामदेव जी ने सलाह की कि इस मेले में जाकर अपने विचारों का प्रचार करें। भक्त नामदेव जी ने अपने साथियों को अपना इरादा बताया। वो सभी तैयार होकर आ गए और चल पड़े और मेले में जाकर शामिल हो गए। भक्त नामदेव जी संगत समेत हरियश गाते हुए मन्दिर के अन्दर चले गए। श्रद्धालू पुरूषों ने उनका बड़ी श्रद्धा के साथ स्वागत किया और उनके लिए आसन लगवा दिया। ईष्यालू पुरूष और ब्राहम्ण जिनके धँधें में फर्क पड़ता था वह जल-भून गए। पूजारी इस समय आरती कर रहा था। भक्त नामदेव जी ने एकत्रित संगतों को उपदेश देने के लिए बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग आसा“ में दर्ज है:

आनीले कुमभ भराईले ऊदक ठाकुर कउ इसनानु करउ ॥
बइआलीस लख जी जल महि होते बीठलु भैला काइ करउ ॥१॥
जत्र जाउ तत बीठलु भैला ॥ महा अनंद करे सद केला ॥१॥ रहाउ ॥
आनीले फूल परोईले माला ठाकुर की हउ पूज करउ ॥
पहिले बासु लई है भवरह बीठल भैला काइ करउ ॥२॥
आनीले दूधु रीधाईले खीरं ठाकुर कउ नैवेदु करउ ॥
पहिले दूधु बिटारिओ बछरै बीठलु भैला काइ करउ ॥३॥
ईभै बीठलु ऊभै बीठलु बीठल बिनु संसारु नही ॥
थान थनंतरि नामा प्रणवै पूरि रहिओ तूं सरब मही ॥४॥२॥ अंग 485

अर्थ: "(भक्त नामदेव जी आरती करने वाले आदमियों को सम्बोधित करते हूए कहते हैं कि आप घड़ा पानी से भरकर ठाकुर का स्नान कराने के लिए लाते हो पर पानी में तो 42 लाख जीव जन्मते रहते हैं। तो पानी किस प्रकार से पवित्र हुआ। वह प्यारा परमात्मा बीठल हर स्थान पर व्यापक है और आनँद कर रहा है। फिर आप फूल लेकर आते हो परमात्मा की पूजा करने के लिए, परन्तु वह फूल तो पहले भँवरें ने सुँघ लिए हैं यानि जूठे कर दिए हैं, वह ठाकुर के किस काम के। तुम दुध लाकर खीर बनाते हो ताकि ठाकुर जी को भोग लगाया जा सके, परन्तु दुध तो पहले से ही बछड़े ने जूठा कर दिया है, ठाकुर प्यारा किस प्रकार से भोग ग्रहण करे। यहाँ पर भी परमात्मा है, वहाँ पर भी परमात्मा है यानि हर स्थान पर वह व्याप्त है। उसके बिना कोई स्थान नहीं है, नामदेव उसको प्रणाम करता है जो हर स्थान पर व्यापक है।)" सारे ब्राहम्ण क्रोध में आकर बोले– नामदेव ! मन्दिर के अन्दर उपदेश करने का कार्य तो केवल ब्राहम्ण ही कर सकता है आप यहाँ से चले जाओ या फिर अपना प्रचार बन्द कर दो। भक्त नामदेव जी ने धीरज से कहा– ब्राहम्ण देवताओं ! परमात्मा ने सभी जीवों को एक समान बनाया है और उनके लिए चन्द्रमाँ, सूरज, हवा, पानी सभी वस्तुओं को एक समान बनाया है। फिर आप कैसे कह सकते हो कि हरि सिमरन या धर्म उपदेश करने का ठेका केवल ब्राहम्णों के पास ही है। यदि आपमें दया, धर्म, प्रेम, मैत्री भाव नहीं है तो फिर अपने आपको ब्राहम्ण किस प्रकार कहलवा सकते हो। आपके ब्राहम्णों के घर पर पैदा होने के कारण आप अपने आपको ब्राहम्ण समझते हो तो यह आपकी भूल है, क्योंकि जो एक आदमी ब्राहम्ण के घर जन्म लेकर भ्रष्ट कर्म करे अथवा मलीन पैसा अर्जित कर ले तो क्या आप उसको ब्राहम्ण समझोगे ? अथवा एक आदमी किसी नीची जात वाले के घर जन्म लेकर वेदवक्ता और पवित्र धर्मधारी हो तो क्या आप उसको नीच कहोगे ? भक्त नामदेव जी के लाजवाब प्रवचन सुनकर सारे ब्राहम्ण खामोश हो गए। भक्त नामदेव जी ने बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग रामकली“ में दर्ज है:

माइ न होती बापु न होता करमु न होती काइआ ॥
हम नही होते तुम नही होते कवनु कहां ते आइआ ॥१॥
राम कोइ न किस ही केरा ॥ जैसे तरवरि पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ ॥
चंदु न होता सूरु न होता पानी पवनु मिलाइआ ॥
सासतु न होता बेदु न होता करमु कहां ते आइआ ॥२॥
खेचर भूचर तुलसी माला गुर परसादी पाइआ ॥
नामा प्रणवै परम ततु है सतिगुर होइ लखाइआ ॥३॥३॥ अंग 973

अर्थ: जब माता पिता नहीं थे। कर्म नहीं थे और शरीर भी नहीं था। आप और हम भी नहीं थे और यह भी नहीं पता था कि जीव किस समय और कहाँ से आया था। हे भाई ! कोइ भी किसी का नहीं। यह सँसार इस प्रकार है जिस प्रकार वृक्ष पर पँछी बसते हैं। चन्द्रमाँ भी नहीं सूरज भी नहीं, हवा और पानी भी मिलाए हुए नहीं थे। शास्त्र और वेद भी नहीं होते थे, उस समय कर्म कहाँ से आया था। तालू में जीभ लगानी और भोहों में बिरती लगानी भाव इस साधना को करने वालों ने गुरू की कृपा करके प्राप्ति की। भक्त नामदेव जी के उपेदश सुनकर सारे लोग अडोल बैठ गए और ब्राहम्ण अपनी कोई चाल न चलती देखकर कुटिलता पर उतर आए। उन्होंने एक चाल चली। ब्राहम्ण बोले: नामदेव ! तूने पिछले एक मेले में देवी-देवता और अवतारों के खिलाफ तिरस्कार भरे शब्द क्यों बोले थे ? नामदेव जी बोले: ब्राहम्ण देवताओं ! मैं तो इस बात को महा पाप समझता हूँ। हमने ऐसा नहीं किया था। पर एक बात में बर्दाशत नहीं कर सकता कि आप उस परमात्मा की तरफ से भेजे गए इन महापुरूषों को ही परमात्मा समझकर उनकी पूजा करो। बस मै आपके इस अज्ञान को दूर करना चाहता हूँ और आपके हर विरोध का मुकाबला करने को तैयार हूँ और इसलिए हर प्रकार की तकलीफ बरदाश्त करने के लिए तैयार हूँ। मै अपने ख्याल पर निरभय होकर और प्रकट करने से सँकोच नहीं करूँगा, क्योंकि मैंने अब इरादा कर लिया है:

अब जीअ जान इही बन आई ।। मिलउ गुपाल नीसान बजाई ।।
मैंने इरादा कर लिया है कि डँके की चोट पर परमात्मा से मिलूँगा। यह बात बोलते ही भक्त नामदेव जी बाणी उच्चारण करने लगे जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग गोंड“ में दर्ज है:
भैरउ भूत सीतला धावै ॥ खर बाहनु उहु छारु उडावै ॥१॥
हउ तउ एकु रमईआ लैहउ ॥ आन देव बदलावनि दैहउ ॥१॥ रहाउ ॥
सिव सिव करते जो नरु धिआवै ॥ बरद चढे डउरू ढमकावै ॥२॥
महा माई की पूजा करै ॥ नर सै नारि होइ अउतरै ॥३॥
तू कहीअत ही आदि भवानी ॥ मुकति की बरीआ कहा छपानी ॥४॥
गुरमति राम नाम गहु मीता ॥
प्रणवै नामा इउ कहै गीता ॥५॥२॥६॥ अंग 874

अर्थ: जो स्त्री पुरूष भैरव भूत और सीतलता की पूजा करते हैं और राख उड़ाते हैं। मैं तो एक राम का नाम लूँगा और बाकी के देवता बदल दूँगा यानि दिल में उन देवताओं को नहीं बसाऊँगा। जो पुरूष शिवजी का सिमरन करेंगे वो बैल की सवारी करके डमरू बजाते फिरेंगे। जो आदमी महामाई यानि दैवी की पूजा करेगा वो आदमी और स्त्री की जूनी धारण करेगा अर्थात वह जन्म-मरण से मूक्ति कभी भी नहीं पा सकेगा। माता को आदि भवानी कहते हैं पर मूक्ति दिलवाने के समय वह कहीं छिप जाती है। (पुरातन कथा है कि भक्त पीपा टोडरपुर का राजा था वह सारी उम्र देवी की पूजा करता रहा पर अंत समय आया तो वह देवी उसको मुक्ति ना दिलवा सकी और छिप गई।) हे मित्रों ! गुरू की समझ द्वारा राम नाम को ग्रहण करो। नामदेव जी कहते हैं कि मैं तो यही गीत गाता हूँ। यह कड़ाकेदार खण्डन सुनकर समझदार और ज्ञानी आदमी बहुत प्रसन्न हुए पर ब्रहाम्ण क्रोधवान हो गए। भक्त नामदेव जी इस समय हरियश गाने में ऐसे मस्त हो गए और काफी रात हो गई। सारे लोग भक्त नामदेव जी के दीवान में जुड़ते जा रहे थे और ब्राहम्णों की आमदनी पर भी इससे अच्छा खासा प्रभाव पड़ा। सारे ब्राहम्ण एकत्रित होकर आपस में खुसर-पुसर करने लगे। ब्राहम्ण बोले– नामदेव जी ! चूँकि रात बहुत हो गई है, हमें मन्दिर के दरवाजे बन्द करने हैं इसलिए आप कीर्तन की समाप्ति करो। भक्त नामदेव जी हरि कीर्तन में मस्त थे उन्होंने उनकी बात नहीं सुनी तो वह ब्राहम्ण बहुत ही ज्यादा क्रोधवान हो गए और एकदम हमला बोल दिया और ढोलकी बाजे, छेणै आदि छीन लिए और सबको धक्के मारकर बाहर निकाल दिया। जिससे भक्त नामदेव जी के श्रद्धालूओं में बड़ा जोश आ गया। अगर भक्त नामदेव जी ने उस समय शाँति का उपदेश न दिया होता तो पता नहीं इन ब्राहम्ण पूजारियों का क्या हाल होता। परन्तु भक्त नामदेव जी के एक प्रेमी ने जोश में आकर बोलना शुरू कर दिया– "(कितने दुख की बात है कि हरियश करते समय भक्त को मन्दिर में से धक्के मारकर बाहर निकाल दिया गया है। यह अनर्थ करने वाले जालिमों ! याद रखो यह ज्यादती तुम्हारा सत्यानाश कर देगी। तुम आज तक रब के बन्दों और प्यारों पर जो भी कहर ढाया है, वह परमात्मा तुम्हें इसका ऐसा सबक सिखाएगा कि कभी उठने के लायक ही नहीं रहोगे। तुम्हारे कुल में से ही एक परशुराम ने भारत वर्ष से क्षत्रिय वँश का सर्वनाश कने का सँकल्प लिया तो बड़े-बड़े शस्त्र विद्या के धनी मार डाले। क्षत्रियों ने ब्राहम्ण जानकर उसे मारना पाप समझा पर वह अपने सँकल्प से पीछे नहीं हटा। तुम्हारे एक वेद वक्ता रावण ने श्री रामचन्द्र जी को जो कि वनवास काटने के लिए वन गए थे, उन्हें अपना समय आराम से काटने नहीं दिया। तुम्हारे एक बुजुर्ग ने श्री कृष्ण जी को खत्म करने का नीच यत्न किया। मैं किस-किस महापुरूष का वर्णन करूँ जो तुम जैसे ब्राहम्णों के अहँकार और क्रोध का शिकार न हुआ हो। आज तुमने एक संत स्वरूप भक्त नामदेव जी का अनादर किया है। इसलिए वो परमात्मा अपने जोश में आएगा। जब परमात्मा के किसी प्यारे भक्त पर कष्ट आता है तो वह परमात्मा भी दुखी होता है और उसके एक इशारे पर तुम्हारा मान, इज्जत और घमण्ड सब कुछ नष्ट हो जाएगा और तुम दर-दर भटकोगे और टके-टके की मजदूरियों के लिए भटकते फिरोगे। जिनको तुम अन्य वर्ण और नीच बुला रहे हो, इनके तुम जूठे बर्तन माँजकर उदर की पूर्ति करोगे। माँग-माँगकर अपने परिवार की पालना कर पाओगे।)" भक्त नामदेव जी ने खड़े होकर उस प्रेमी को शान्त कराया और मन्दिर के पीछे संगत समेत जाकर बैठ गए और अपने परमात्मा के चरणों में मन जोड़ने के लिए बाणी उच्चारण की, जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग भैरउ“ में दर्ज है:

कबहू खीरि खाड घीउ न भावै ॥ कबहू घर घर टूक मगावै ॥
कबहू कूरनु चने बिनावै ॥१॥ जिउ रामु राखै तिउ रहीऐ रे भाई ॥
हरि की महिमा किछु कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
कबहू तुरे तुरंग नचावै ॥ कबहू पाइ पनहीओ न पावै ॥२॥
कबहू खाट सुपेदी सुवावै ॥ कबहू भूमि पैआरु न पावै ॥३॥
भनति नामदेउ इकु नामु निसतारै ॥
जिह गुरु मिलै तिह पारि उतारै ॥४॥५॥ अंग 1164

अर्थ: कभी घी, शक्कर, खीर आदि पदार्थ भी अच्छे नहीं लगते और कभी घर-घर टुकड़े माँगने पड़ते हैं। हे भाईयों ! जिस प्रकार परमात्मा रखे, रहना पड़ता है। उस परमात्मा की उसतति कही नहीं जाती। कभी घोड़ों पर चड़ाता है और कभी पैरों में पहनने को जूती भी नहीं मिलती। कभी सफेद बिछौने पर पलँगों पर सुलाता है और कभी जमीन पर सोने के लिए नीचे बिछाने के लिए पराली भी नहीं मिलती। श्री नामदेव जी कहते हैं कि परमात्मा का नाम ही निसतारा करेगा और जिसको सच्चा गुरू मिलेगा वो ही सँसार सागर से पार उतरेगा। भक्त नामदेव जी ने मन ही मन परमात्मा से विनती की कि हे सरब व्यापक दर्शन दो। श्री नामदेव जी उस परमात्मा के अलावा कभी किसी का आसरा नहीं लेते थे। इसलिए उन्होंने परमात्मा को पूकारा– हे परमात्मा ! मैं तेरे नाम का डँका बजा रहा हूँ। इन ब्राहम्णों ने मेरी जो निरादरी की है, मुझे उसकी कोई फिक्र नहीं, क्योंकि मुझे तो आप जिस हालत में रखोगे मैं राजी रहूँगा। पर तेरा नाम जपते हुए जो तिरस्कार हुआ है, उसमें तेरी ही हेठी है। इसलिए तूँ मेरी सहायता कर और इज्जत रख। भक्त नामदेव जी ने बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग भैरउ“ में दर्ज है:

हसत खेलत तेरे देहुरे आइआ ॥ भगति करत नामा पकरि उठाइआ ॥१॥
हीनड़ी जाति मेरी जादिम राइआ ॥
छीपे के जनमि काहे कउ आइआ ॥१॥ रहाउ ॥
लै कमली चलिओ पलटाइ ॥ देहुरै पाछै बैठा जाइ ॥२॥
जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै ॥
भगत जनां कउ देहुरा फिरै ॥३॥६॥ अंग 1164

अर्थ: हे परमात्मा ! मैं हँसते-खेलते हुए तेरे द्वारे पर आया था और मुझे तेरी भक्ति से कीर्तन से पकड़कर उठा दिया गया है। पर यादव कुल के मालिक श्री कुष्ण जी ने भी इस क्षत्रिय कुल क्यों जन्म लिया ? नामदेव लौट आया है और मन्दिर के पीछे आकर बैठ गया है। जैसे जैसे नामदेव हरि के गुणों को गायन करता जाता था। वैसे-वैसे देहुरा यानि मन्दिर फिरता जाता था। यहाँ पर परमात्मा ने ऐसी कला की कि ब्राहम्णों का अहँकार काँच की तरह टूटकर चकनाचूर हो गया। परमात्मा ने मन्दिर का दरवाजा ब्राहम्णों की तरफ से घूमाकर मन्दिर के पीछे बैठे भक्त नामदेव जी की तरफ कर दिया। अगर कोई शँकावादी पूछे कि मन्दिर घूमा ? तो हम कहेंगे कि हाँ भाई घूमा। अगर कोई प्रश्न करे कि मन्दिर किस तरह घूमा ? तो हम कहेंगे कि परमात्मा प्राणी मात्र की पुकार सुनता है, पर अपने भक्त की पुकार तो हर वक्त सुनता है और भक्त नामदेव जी ने तो दर्द भरे दिल से पुकार की थी। भक्त नामदेव जी की विनती स्वीकार करके उस परमात्मा ने लाज रख ली तो उन्होंने उस परमात्मा के साथ लिव जोड़ ली और बाणी गायन की, जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में राग सोरठि में दर्ज है:

जब देखा तब गावा ॥ तउ जन धीरजु पावा ॥१॥
नादि समाइलो रे सतिगुरु भेटिले देवा ॥१॥ रहाउ ॥
जह झिलि मिलि कारु दिसंता ॥ तह अनहद सबद बजंता ॥
जोती जोति समानी ॥ मै गुर परसादी जानी ॥२॥
रतन कमल कोठरी ॥ चमकार बीजुल तही ॥
नेरै नाही दूरि ॥ निज आतमै रहिआ भरपूरि ॥३॥
जह अनहत सूर उज्यारा ॥ तह दीपक जलै छंछारा ॥
गुर परसादी जानिआ ॥ जनु नामा सहज समानिआ ॥४॥१॥ अंग 656

अर्थ: जब परमात्मा को देखा तब ही गाने लगा और अपने मन को धीरज देता हूँ। जब गुरू का मेल हुआ तो उनका उपदेश दिल में बसा है। परमात्मा की जोत सभी में समाई हुई है, यह मैंने गुरू की कृपा करके जाना है। इस शरीर रूपी कोठरी में जो दिल रूपी कमल है। उसमें चेतन कला रूप बिजली चमकती है। वह परमात्मा दूर नहीं पास ही है और आत्मा में भरपूर वास कर रहा है। जहाँ एक ज्ञान रस रूप, ज्ञान का सूरज चमकता है वहाँ पर और दीपक (झूठे ज्ञान) बूझ जाते हैं। यह सब गुरूओं की कृपा करके जाना है और दास यानि नामदेव उस परमात्मा में लीन हो गया है अर्थात समा गया है। भक्त नामदेव जी अपने ही भक्ति रँग में रँगे हुए थे। उधर जब देहुरा फिर गया तो ब्राहम्ण काँप गए और अपने द्वारा की गई करतूत पर बहुत ही शर्मिन्दा हुए और हजारों लोगों के सामने ही भक्त नामदेव जी के चरणों में आकर गिर पड़े। भक्त नामदेव जी ने सभी को सत्य उपदेश दिया और कृर्ताथ किया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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