7. कामजाज और विवाह
भक्त नामदेव जी को उनके पिता जी दस्तकारी सिखाने के विचार से एक दर्जी की दुकान पर
शार्गिद बनान के विचार से ले गए पर भक्त नामदेव जी का मन तो केवल हरि सिमरन के अलावा
और किसी भी काम में नहीं लगता था। इसलिए वह जिस प्रकार से पाठशाला में पढ़ने गए थे
और पाठशाला के अध्यापक को ही पढ़ाकर यानि परमात्मा के सिमरन का उपदेश देकर वापिस आ
गए थे, उसी प्रकार दुकान पर काम करने वाले दर्जी और आदमियों को सम्बोधित करते हुए
बाणी उच्चारण की:
मनु मेरो गजु जिहबा मेरी काती ॥ मपि मपि काटउ जम की फासी ॥१॥
कहा करउ जाती कह करउ पाती ॥ राम को नामु जपउ दिन राती ॥१॥ रहाउ ॥
रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ ॥२॥
भगति करउ हरि के गुन गावउ ॥ आठ पहर अपना खसमु धिआवउ ॥३॥
सुइने की सूई रुपे का धागा ॥ नामे का चितु हरि सउ लागा ॥४॥३॥ अंग 485
पुराने लिखारी इस शब्द को बिगाड़कर रांगउं को रांगू और सीवउं को
सीवूं करके अर्थ को अनर्थ करके कहते है कि भक्त जी रंगने का कार्य करते थे इसलिए यह
शब्द अपने लिए प्रयोग किया है पर जब शब्द को जरा विचाकर पढ़ेंगे तो अर्थ स्पष्ट हो
जाएँगे।
नोट: यहाँ पर रांगउं में “उ“ का प्रयोग अन्य पुरूष के लिए है।
विवाह : भक्त नामदेव जी का खानदान एक तगड़े व्यापारियों
का यानि धनी लोगों का था और हरि भक्त होते हुए भी गृहस्थी जीवन व्यतीत करते थे।
इसलिए प्राँत के पूर्वी नगर निवासी एक व्यापारी गोबिन्द शेट सदावरती ने अपनी
सुपुत्री राजा बाई जी का शगन नामदेव जी को लगा दिया यानि सगाई कर दी और इसके कुछ
समय बाद ही विवाह निश्चित कर दिया गया। भक्त नामदेव जी का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ।