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6. पिता जी को ज्ञान देना

भक्त नामदेव जी, परमात्मा के दर्शन करके जब अति प्रसन्नचित अवस्था में घर पहुँचे। प्रसन्न देखकर माता ने पूछा– पुत्र ! क्या पूजा करने गए थे ? भक्त नामदेव जी बोले– माता जी ! ठाकुर जी के लिए दूध लेकर गया था उन्होंने मेरी विनती मानकर दूध पी लिया है। माता अपने पुत्र के भोले भाव को देखकर हँस पड़ीं परन्तु उनके ब्रहमज्ञान को नहीं समझ सकीं। सँध्या के समय जब पिता जी आए तो उन्होंने अपने पुत्र भक्त नामदेव जी को अपनी गोदी में बिठाया और प्यार से पूछा– पुत्र ! क्या तूँ आज ठाकुर जी की पूजा करने के लिए गया था ? पुत्र ने कहा मैं आज सुबह उठा नित्यक्रम करने के बाद साफ स्वच्छ कपड़े पहने और फिर दूध दोहा और मन्दिर में ठाकुर जी के आगे रखकर विनती की कि हे परमात्मा ! मैं अनजान बच्चा हूँ, मेरी भेंट स्वीकार करो। पहले तो परमात्मा जी चुप रहे पर जब मैं अधीर हो गया और फिर गिड़गिड़ाकर विनती की कि हे ठाकुर जी ! मैं बच्चा हू, मुझसे अगर कोई भूल हुई है तो उसे क्षमा करके, दूध की भेंट स्वीकार करो। तब उन्होंने कृपा करके दूध का भोग लगाया। पिता अपने पुत्र भक्त नामदेव जी भोली भाली बात सुनकर हँस पड़े। वह कहने लगे– पुत्र ! ठाकुर कभी दूध नहीं पीता, यह तो रस्म है कि भोग लगाने के लिए दूध ले गए पर्दा लगा दिया और घण्टी बजा दी और वापिस ले आए। यह बात सुनकर भक्त नामदेव जी हैरान होकर बोले कि दूध वापिस ले आए तो भोग क्या और ठाकुर क्या ? मैं तो आज अपने सामने ठाकुर जी को दूध पीलाकर आया हूँ पिता जी बोले: पुत्र ! यदि ऐसी बात है तो फिर मेरे साथ मन्दिर चल और मेरे सामने ठाकुर जी का दूध पिलाकर दिखा। भक्त नामदेव जी ने कहा: पिता जी ! जिस ठाकुर ने दूध पीया है, वह केवल मन्दिर में ही नहीं, बल्कि वह तो सर्वव्याक और हर स्थान पर है और घट-घट मे बस रहा है। भक्त नामदेव जी ने बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में "राग आसा" में दर्ज है:

एक अनेक बिआपक पूरक जत देखउ तत सोई ॥
माइआ चित्र बचित्र बिमोहित बिरला बूझै कोई ॥१॥
सभु गोबिंदु है सभु गोबिंदु है गोबिंद बिनु नही कोई ॥
सूतु एकु मणि सत सहंस जैसे ओति पोति प्रभु सोई ॥१॥ रहाउ ॥
जल तरंग अरु फेन बुदबुदा जल ते भिंन न होई ॥
इहु परपंचु पारब्रह्म की लीला बिचरत आन न होई ॥२॥
मिथिआ भरमु अरु सुपन मनोरथ सति पदार्थु जानिआ ॥
सुक्रित मनसा गुर उपदेसी जागत ही मनु मानिआ ॥३॥
कहत नामदेउ हरि की रचना देखहु रिदै बीचारी ॥
घट घट अंतरि सरब निरंतरि केवल एक मुरारी ॥४॥१॥  अंग 485

अर्थ: एक परमात्मा अनेक रूपों में सभी स्थानों पर है, व्यापक है। जहाँ देखों वो ही है। माया के सुन्दर चित्रो में मोहे हुए बन्दों में से कोई विरला ही उसे पहचानता है। सब गोबिन्द ही गोबिन्द है, उससे बिना और कुछ भी नहीं। जिस प्रकार डोरी एक होती है। मनके चाहे हजारों हों। सब उसी डोरी में पिरोए हुए होते हैं। जिस प्रकार पानी का बुलबुला उससे अलग नहीं होता। इसी प्रकार यह सँसार परमात्मा की लीला है। सपने की तरह अस्त चीजों को सची मान लेते हैं। लेकिन जिनकी मत अच्छी है और उन्होंने गुरू का उपदेश धारण किया है, माना है उनका मन मान जाता है। नामदेव जी कहते हैं कि दिल में विचार करके देख वह परमात्मा घट-घट में व्यापक है और बस रहा है। पिता ने जब अपने पुत्र भक्त नामदेव जी के मुख से ऐसी ज्ञानमयी बाणी सुनी तो उन पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा। हालाँकि उनका दिल भी धर्म भरूपर और ईश्वर प्रस्त था केवल भुलेखे और भ्रम का पर्दा पड़ा हुआ था जो पुत्र के शुद्ध दिल से निकली हुई पवित्र बाणी ने दूर कर दिया। भक्त नामदवे जी ने फिर कहा:

ईभै बीठलु ऊभै बीठलु बीठल बिनु संसारु नही ॥
थान थनंतरि नामा प्रणवै पूरि रहिओ तूं सरब मही ॥४॥२॥  अंग 485

अर्थ: यहाँ वहाँ सभी स्थानों पर परमात्मा है, उसके बिना तो सँसार ही नहीं है। पिता जी ने प्रश्न किया– पुत्र ! फिर पत्थर की मूरत बीठल यानि परमात्मा नहीं है ? भक्त नामदवे जी ने उत्तर दिया:

एकै पाथर कीजै भाउ ॥ दूजै पाथर धरीऐ पाउ ॥
जे ओहु देउ त ओहु भी देवा ॥ कहि नामदेउ हम हरि की सेवा ॥४॥१॥ अंग 525

अर्थ: एक पत्थर पर तो हम पैर धरते हैं और दूसरे पत्थर की बनी मूर्ति की पूजा करते हैं। अगर पत्थर की मूर्ति देव अर्थात ठाकुर है तो वो पहला पत्थर भी देव है। नामदेव कहते हैं कि मैं तो यह झगड़े छोड़कर हरि की सेवा करता हूँ, यानि उसका ही नाम जपता हूँ। पुत्र के वचन सुनकर पिता को पूर्ण ज्ञान हो गया और आगे के लिए कृत्रिम पूजा यानि मूर्ति पूजा छोड़कर सरब व्यापी ठाकुर यानि परमात्मा का नाम जपने में लग गए। लोगों के मन में इस अज्ञान ने घर कर लिया है था कि मन्दिर में जो पत्थर की मूर्ति है यही भगवान हैं और इसकी पूजा की हरि की पूजा और हरि का भजन है। भक्त नामदवे जी ने अपनी भक्ति और दृढ़ विश्वास से परमात्मा को साक्षात प्रकट करके दूध पिलाकर यह साबित कर दिया इस मूर्ति की पूजा में कुछ नहीं रखा। इस दिखावे को त्यागकर राम नाम का सिमरन करो और सच्चे दिल से उसके आगे अरदास करो, फिर वह आपकी विनती जरूर स्वीकार करेगा। परन्तु यह बात भी जरूरी है कि आपकी विनती अर्न्तकरण यानि अर्न्तआत्मा से निकले और स्वार्थ से रहित हो। बस जब मनुष्य मात्र की अवस्था इस टिकाने पर पहुँच जाए तो समझ लो कि उसने अपना जन्म सफल कर लिया है।
"लोक सुखीए परलोक सुहेले ।। नानक हरि प्रभ आपहि मेले ।।"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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