4. विद्याध्यन
भक्त नामदेव जी की अवस्था जब पाँच (5) वर्ष की हो गई तो पिता दामशेट जी ने सोचा कि
पुत्र की आयु विद्या प्राप्ति के योग्य हो गई है। इसलिए इन्हें पढ़ाई के लिए किसी
विद्वान के पास लेकर जाना चाहिए। इस विचार के अनुसार एक शुभ दिन जानकर परिवार के
स्त्री और पुरूषों को साथ लेकर मीठी वस्तुओं का प्रशाद थाली में लेकर पाठशाला में
पहुँच गए और पाठशाला के मुख्य अध्यापक से विनती की कि इस बालक को विद्या दान बक्शो।
अघ्यापक ने उनका स्वागत किया और बालक नामदेव को बड़े प्यार से अपने सामने बिठाया और
पट्टी पर अक्षर लिखकर पढ़ने लिखने के लिए कहा। भक्त जी तो सँसार वालों को उस परमात्मा
की भक्ति का शब्द देने के लिए आए थे। वो तो हर प्रकार की विद्या परमात्मा के दरबार
से ही प्राप्त करके आए थे। वह परमात्मा के भजन के बिना और कुछ भी नहीं पढ़ना चाहते
थे, इसलिए उन्होंने अध्यापक को उत्तर दिया:
विदिआ हरि बिन काम न मेरे ।। मुख ते बचन कहै कर जोरे ।।
पांडे मोहि पढ़ावो हरी ।। विदिआ आपणे राखो घरी ।।
बारां अखर बारां खरी ।। हरि बिनु पढ़ने की आखरी ।।
रामे ममे ते आखरा ।। पार उतारे भै सागरा ।।
हम तुम पांडे कैसा बाद ।। राम नाम पढ़िया प्रहलाद ।।
खंम माहि प्रकटिओ है हरी ।। नामे का सुआमी है नरहरी ।।
इस बाल अवस्था में ही इतना ज्ञान भरपूर और हरि सिमरन में गूँथा
हुआ उपदेश सुनकर सब चकित हो गए। पण्डित जी ने तो भक्त नामदेव जी के चरणों में
नमस्कार की और उनके पिता जी को कहा कि आपके धन्य भाग्य हैं जो इतना ज्ञानवान और हरि
भक्त प्राप्त हुआ है। यह तो कोई महापुरूष है, इसको क्या पढ़ाना है यह तो आप ही सर्व
विद्या भरपूर और सरब कला सम्पूर्ण है। यह तो मेरे जैसे कई अध्यापाको को ज्ञान देगा
और जीवों का उद्धार करेगा। इस प्रसँग का यह भाव नहीं है कि सँसारिक विद्या नहीं पढ़नी
चाहिए। अक्षर की विद्या जरूर पढ़नी चाहिए, क्योंकि इसके बिना मनुष्य किसी भी काम का
नहीं परन्तु इस विद्या के साथ-साथ परमात्मा की भक्ति, सच बोलना, प्राणी-मात्र से
प्रेम करना, सभी को एक समान मानना चाहे वो किसी भी धर्म जाति अथवा सम्प्रदाय का हो,
दीन दुखी की मदद करना, देश की सेवा और धर्म के मार्ग पर चलना यह विद्या भी देनी
चाहिए। भक्त जी तो सभी प्रकार की विद्या परमात्मा के दरबार से ही सीखकर आए थे,
इसलिए उन्हें ज्यादा ज्ञान था।