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13. एक धनी का यज्ञ और उपदेश

श्री पँडरपुर में रहने वाला एक साहूकार बीमार हो गया। उसने अनेक वेदों, हकीमों और समझदार पुरूषों का इलाज किया और कई उपाय करवाए पर कोई आराम नहीं आया, अंत में ज्योतिषियों से पूछा ता उन्होंने ज्योतिष विद्या से बताया कि जब तक तुम अपनी दौलत का एक भाग दान में नहीं दोगे तब तक आपको आराम नहीं मिलेगा, क्योंकि आपके ऊपर बहुत भारी कष्ट आया हुआ है। साहूकार ने सोचा कि जान है तो जहान है अगर जान ही चली गई तो यह दौलत किस काम की। एक दिन उसने यज्ञ करवाया और सारे नगर को प्रीतिभोज दिया। सब नगर निवासी आते और भोजन खाकर वापिस जाते रहे। सँध्या का समय हुआ तो साहूकार ने पूछा कि नगर का कोई निवासी रहा तो नहीं। सेवकों ने सोचकर कहा कि जहाँ तक हमारा विचार है तो नगर का कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो यहाँ भोजन खाने न आया हो, केवल भक्त नामदेव जी को छोड़कर। भक्त नामदेव जी यहाँ नहीं आए। साहूकार ने अपना एक आदमी भक्त नामदेव जी के घर पर बुलाने के लिए भेजा। भक्त नामदेव जी परमात्मा के नाम सिमरन में व्यस्त थे, जब उनकी समाधी टूटी तो उन्होंने साहूकार के सेवक को सामने पाया। साहूकार का आदमी बोला: भक्त जी ! सेठ जी ने यज्ञ किया है, नगर के सभी निवासियों ने आकर प्रसाद प्राप्त किया है आप भी चलकर पधारें। भक्त नामदेव जी ने कहा: महाश्य जी ! हम तो रोज ही परमात्मा की कृपा से भोजन पाते हैं, हमें किसी सेठ के यहाँ पर जाने की जरूरत नहीं। सेवक बोला: महाराज ! वो साहूकार तो बहुत ही धनी और माना हुआ है, उसके घर तो लोग बिना बुलाए ही दौड़े चले आते हैं। आपको तो उन्होंने स्वयँ ही बुलाया है। भक्त नामदेव जी ने कहा: महाश्य ! कोई आदमी केवल धनी होने से बड़ा नहीं हो सकता, बड़े होने के लिए हरि प्रेम और हरि सिमरन और गुणों की जरूरत है और इसके बिना:

जिनी गुरमुखि हरि नाम धनु न खइओ, से दिवालिए जुग माहि ।।

वो सेठ पूरा मायाधारी है हरि भजन नहीं करता, हमारे मत अनुसार वो दिवालिया है, इसलिए हम तो ऐसे आदमी के घर जाने के लिए तैयार नहीं। उस आदमी ने जब वापिस आकर साहूकार को सारी बात बताई तो उसका दिल काँप गया और उसने विचार किया कि नामदेव तो कोई बेपरवाह संत मालूम होता है। यह सोचकर उसने अपने दूसरे सेवक को भेजा और कहलवाया कि मेरा शरीर चल नहीं सकता, कृपा करके आप ही दर्शन देकर कृतार्थ करें। वह सेवक भक्त नामदेव जी के पास पहुँचा और उसने आने के लिए विनती की तो भक्त नामदेव जी सारी बात सुनकर साथ चलने को तैयार हो गए। और उसके साथ साहूकार के घर पर पहुँचे तो साहूकार ने उनका स्वागत किया और उन्हें आसन पर आदरपूर्वक बिठाया। साहूकार ने कहा: महाराज ! मैं कई समय से अपना धन गरीबों पर, जरूरतमँदों पर लूटा रहा हूँ, ताकि मेरी सेहत ठीक हो जाए। अगर आप हुक्म करो तो आपकी भी सेवा कर दूँ। भक्त नामदेव जी ने कहा: भले इन्सान ! बस यही तो भूलेखा है, अगर तूँ इस धन-दौलत को अपनी समझकर बाँट रहा है तो इसके बाँटने का कोई लाभ नहीं, लाभ तब होगा जब तूँ मन में यह सोच लेगा कि यह सब कुछ परमात्मा का दिया हुआ है। “तेरा कीआ तुझहि किआ अरपउ ।।“ वाला ख्याल दिल में होना चाहिए। सेठ साहिब ! माया दान करने से ज्यादा लाभ तो हरि का भजन और उसका नाम सिमरन करने से होगा। साहूकार ने कहा: महाराज जी ! मैं जितना सोना-चाँदी और धन-दौलत दान कर चुका हूँ क्या उसका कोई लाभ नहीं ? भक्त नामदेव जी ने उस सेठ की आँखें खोलने के लिए एक कागज पर राम नाम लिखकर एक तराजू पर रख दिया और सेठ जी से कहा कि इसके मुकाबले में दुसरी तरफ धन-दौलत में से कुछ भी रखो। साहूकार ने पहले एक चाँदी का डल्ला रखा फिर एक सोने की ईंट और फिर दो ईंटें रखीं परन्तु अभी भी राम नाम वाला पलड़ा जमीन से ही लगा हुआ था। फिर साहूकार ने अपने आदमियों से और सोना-चाँदी लाने का हुक्म दिया। सारे घर का सोना और चाँदी को उस पर चढ़ा दिया गया परन्तु वह कागज वाला पलड़ा जिस पर राम नाम लिखा हुआ था जमीन पर ही रहा, उसके बराबर की बात तो दूर थी सेठ की पूरी दौलत भी उसे हिला तक न सकी। साहूकार तो बहुत ही हैरान और परेशान सा हो गया। भक्त नामदेव जी ने उपदेश किया कि सारी दुनियाँ की धन-दौलत मिलकर भी परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते। यह सुनकर तो साहुकार पर जैसे बिजली गिरी और वह भक्त नामदेव जी के चरणों में गिर पड़ा। साहूकार गिड़गिड़ाता हुआ बोला: हे भक्त जी महाराज ! मुझे हुक्म करो, मैं तीर्थ यात्रा करूँ या यज्ञ करवाऊँ या फिर और कोई दान करूँ ? जिससे मेरा शरीर अरोग हो जाए। भक्त नामदेव जी ने उपदेश किया और बाणी उच्चारण की, जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में “राग गोंड“ में दर्ज है:

असुमेध जगने ॥ तुला पुरख दाने ॥ प्राग इसनाने ॥१॥
तउ न पुजहि हरि कीरति नामा ॥
अपुने रामहि भजु रे मन आलसीआ ॥१॥ रहाउ ॥
गइआ पिंडु भरता ॥ बनारसि असि बसता ॥ मुखि बेद चतुर पड़ता ॥२॥
सगल धरम अछिता ॥ गुर गिआन इंद्री द्रिड़ता ॥ खटु करम सहित रहता ॥३॥
सिवा सकति स्मबादं ॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं ॥
सिमरि सिमरि गोबिंदं ॥ भजु नामा तरसि भव सिंधं ॥४॥१॥ अंग 873

अर्थ: चाहे कोई अश्वमेघ यज्ञ करे, अपने बराबर सोना तौलकर दान करे अथवा अपने अंग सोने में मढ़कर दान करे। पराग आदि तीर्थों पर स्नान करे तो भी वो हरि कीरतन का मुकाबला नहीं कर सकता। भाव यह है कि हरि सिमरन के बराबर दुनियाँ की कोई वस्तु नहीं है। हे आलसी दरिद्री मन ! अपने परमात्मा का सिमरन कर। चाहे कोई अपने बड़ों का पिंड कराए और चाहे काशी बनारस में निवास कर ले, मूँह से चारों वेदों को उच्चारण करने वाला बन जाए और सभी धर्मों के सँयुक्त उपदेश द्वारा इन्द्रियों को रोकने वाला हो जाए। छैः कर्मों के अनुसार रहता हो शिव और पार्वती के सँवाद का जानकार हो। तो भी सँसार समुद्र पार नहीं कर सकता। अंत में भक्त नामदेव जी कहते हैं कि हे मन ! सारे भेदभाव छोड़कर एक परमात्मा के नाम का सिमरन कर ताकि सँसार सागर से पार हो सके। भक्त नामदेव जी का यह उपदेश सुनकर साहूकार और साथ में जितने भी लोग खड़े थे सभी धन्य हो गए और गदगद हो गए उनके मन की सारी समस्याएँ दूर हो गईं।

नोट: इस सारे प्रसँग का तात्पर्य है कि धनी लोग यज्ञ या पूजा पाठ आदि करवाते हैं और गरीब लोगों को बुलाकर कहते हैं कि माँगों क्या माँगते हो। जब गरीब कुछ माँगता है तो वह उसकी माँग पूरी करते हैं ताकि गरीब उसकी दरिया दिली का ढिंढोरा पीटे और उसकी वाहवाही हो। यह दान नहीं है यह तो केवल अहँकार है और दिखावा है। इस दान का तो करने वाले और लेने वाले किसी को भी लाभ नहीं। दान भी देखकर देना चाहिए कि क्या दान लेने वाले को उसकी आवश्यकता है कि नहीं। कुछ लोग दिखावा करने के लिए दान करते हैं कि लोग कहें कि कितना दानी हैं। जबकि उनके घर में कोई जरूरतमँद आ जाए तो उसे दान देने से साफ इन्कार कर देते हैं, क्योंकि लोगों को मालूम नहीं होगा। अगर दे भी देते है तो लोगों से कहते फिरते हैं कि फलाने आदमी को मैंने यह दान दिया। इस प्रसँग के जरीए भक्त नामदेव जी यह बताना चाह रहे थे कि दान या अन्य किसी भी कार्य यानि मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड वेदों का ज्ञाता होना, यह सब कार्य परमात्मा के नाम सिमरन का कभी भी मुकाबला नहीं कर सकते।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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