51. भक्तों की बेड़ी पत्थर की शिला
एक बार की बात है भक्त कबीर जी और उनकी पत्नी माता लोई जी किसी रिश्तेदार सै मिलकर
वापिस आ रहे थे। दरिया पर पहुँचते-पहुँचते काफी अन्धेरा हो चुका था और घाट पर केवल
एक ही बेड़ी (नाव) बाकी थी। जिसमें एक सेठ जी अपनी मिठाई और अपनी पुत्री समेत बैठे
हूए थे। बेड़ी (नाव) का मलाह एक हिन्दू राजपुत था। कबीर जी ने उसको कहा: हे मलाह !
हमको भी उस पार ले चल। मलाह यह सुनकर बोला: तूँ देखता नहीं कि बेड़ी (नाव) में सेठ
अपने परिवार समेत बैठा है, वह अपने साथ किस तरह तेरे जैसे गरीब जुलाहे और जुलाही को
बैठने देंगे ? कबीर जी ने कहा: भाई ! तेरी बेड़ी (नाव) बहुत बड़ी है। हम एक किनारे पर
बैठ जाऐंगे। फिर हमने मूफ्त नहीं जाना, किराया देंगे। यह कहकर कबीर जी ने एक रूपया
जेब में से निकालकर मलाह को दिखाया और कहा कि लै भाई यह पेशगी ले ले। रूपया देखकर
मलाह के मूँह में पानी भर आया और वह कबीर जी को ले जाने के लिए तैयार हो गया। तभी
बेड़ी (नाव) में से सेठ कड़कती हुई आवाज में बोला: खबरदार ! जो इस जुलाहे और जुलाही
को बेड़ी (नाव) में बिठाया। जरा होश कर तूँ एक लखपति स्वर्ण हिन्दू सेठ के साथ इन
मलेछों को किस प्रकर बैठा सकता है। मैं तुझे तेरे हक से भी ज्यादा दूँगा और उसने
पूरे पाँच रूपये मलाह के हाथ पर रख दिए। वह मलाह बेड़ी (नाव) लेकर चला गया। कबीर जी
और लोई जी वहीं अन्धेरे में खड़े रहे। कबीर जी ने लोई जी का हाथ पकड़ा और एक शिला पर
जा बैठे जिसका आधा भाग पानी में था और आधा बाहर। लोई जी ने पूछा: स्वामी जी ! क्या
आज राज यहीं पर काटनी होगी ? कबीर जी ने कहा: लोई ! यह बात तो मेरे राम जी बता
पाऐंगे और वह बताऐंगे भी जरूर। लोई जी ने कहा: स्वामी जी ! क्या आपका मतलब यह है कि
आपके राम इस पत्थर को तैराके उस पर ले जाऐंगे ? कबीर जी ने कहा: कि लोई ! चुपचाप मेरे राम जी के रँग देखते जाओ।
यह कहकर कबीर जी समाधि में चले गए और कुछ मिनटों के बाद उन्होंने मेरे राम जी, मेरे
राम जी कहकर अपनी आँखें खोल दी। लोई जी यह देखकर हैरान रह गई कि जिस शिला पर वह बैठे
थे उसने हिलना शुरू कर दिया और फिर पानी की सतह पर आकर नाव की तरह तैरना शुरू कर
दिया। कबीर जी इस अनोखी नाव पर बैठै हुए इस प्रकार हँसते हुए राम जी, राम जी कहे जा
रहे थे जिस प्रकार किसी प्यारे मित्र से गहरी बातें करके हँस रहे हों। लोई जी
श्रद्धा भरी निगाहों से अपने स्वामी की तरफ देखती हुई धन्य राम जी, धन्य राम जी और
धन्य कबीर जी, धन्य कबीर जी का जाप कर रही थी। पत्थर की यह नाव उस पार उस मलाह की
नाव से कुछ समय पहले ही पहुँच गई और घाट की सीढ़ी पर चड़ गई। कबीर जी और लोई जी दोनों
ही राम नाम का जाप करने में मग्न थे। सेठ ने अहँकार में आकर बहुत कुछ कह दिया था
परन्तु वह उस समय से ही सोच रहा था कि उसने ऐसा करके बड़ी गल्ती की है, कबीर जी बहुत
पहुँचे हुए हैं और उनको नाराज करना किसी भी प्रकार से बुद्धिमानी का काम नहीं था।
यह सोचते हुए जब वह मन्जिल पर पहुँचा तो उसने कबीर जी और लोई जी को जब किनारे पर
पहुँचा हुआ पाया तो वह हैरान और परेशान हो गया। सेठ कबीर जी के चरणों में जा गिरा
और बोला: हे कबीर जी ! हे महाराज ! हे सतिगुरू ! मुझसे बड़ी भूल हो गई, मैं पापी
हूँ, गुनहगार हूँ। आप मेरे पापों और गुनाहों को क्षमा कर दो। कबीर जी ने सेठ को
उठाया और कहा:
एक राम जन्म को देवै, सभ एकस के बंदे ।।
ऊच नीच को कहे जो पैदा, पापन के फसु बंदे ।।
ऐ मानसु अपने को देखो, ईरख काहूँ जलंदे ।।
मानस सेव से सो लोहे मन को, कहे कबीरा मंदे ।।
इस शब्द ने सेठ जी के पछतावे में तड़पते हुए दिल को और तड़पा दिया।
कबीर जी उसकी दयनीय हालत देखकर बोले उठे: सेठ जी ! आपका नाम क्या है ? सेठ ने बोला:
महाराज जी ! मुझे राम दास कहते हैं। यहाँ पर काशी और अन्य शहरों में मेरा बहुत बड़ा
कारोबार है। कबीर जी ने कहा: भक्त ! अगर आपका नाम राम दास है तो आप राम के दासों
वाले कार्य भी किया करो। यह तो भाई अच्छी बात नहीं कि राम जी के दास होकर उसके बंदों
को नफरत करते चले जाओ। सेठ रामदास बोला: महाराज ! मेरा गुनाह माफ कर दो। आज से मैं
राम जी के दास वाला कार्य किया करूँगा और कभी भी अहँकार को पास नहीं आने दूँगा।
कबीर जी ने कहा: अब तुम्हारा दिल साफ हो चुका है। अब आप अपने दिल से यह बात निकाल
दो कि हम आपसे नाराज हैं। आप राम नाम का जाप किया करो और राम को सदा दिल में बसाकर
रखो। ऊँच-नीच क्या होता है। आप भी नँगे ही आए हो और हम भी। सभी उस परमात्मा की
सन्तान हैं। यह ऊँच-नीच तो इन्सान द्वारा ही बनाई हुई है। जिस तरीके से चमार पैदा
होता है, उसी तरीके से ब्राह्मण भी पैदा होता है। सभी खाली हाथ ही आते हैं और खाली
हाथ ही चले जाते हैं। यह दौलत सब यहीं पर रह जाएगी। दौलत का अहँकार और अभिमान त्यागो।
इन्सान के साथ उसके भले कर्म ही जाते हैं, इस बात का पूरी जिन्दगी में ध्यान रखो।
राम नाम हमेशा जपो, आपका कल्याण होगा।