44. मूर्ति पूजा का खण्डन
कबीर जी ने ना केवल मूर्ति पूजा का खण्डन किया बल्कि देवी-देवताओं की पूजा की भी बड़े
जोर के साथ निन्दा की है। वह कहते हैं कि लेखा जब सीधे परमात्मा के साथ हो तो फिर
दलाल क्यों लिए जाऐं ? कबीर जी कहते हैं कि जब जीते जागते सतगुरू मौजूद हैं तो फिर
देवी-देवताओं के पीछे क्यों दौड़ा जाए, वह फरमाते हैं:
पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥
जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥
भूली मालनी है एउ ॥ सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ ॥
ब्रह्मु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥
तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥
पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥
जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥
भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥
भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥
मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥
कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥ अंग 479
कबीर जी के द्वारा देवी-देवताओं के इस प्रकार के खण्डन की
मूर्तियों, बुतों और देवताओं के पूजारियों ने बहुत निन्दा की। एक दिन एक ब्राह्मण
एक ठाकुर ले आए। वह फरमाने लगे: कबीर जी ! नास्तिकों वाली बातें क्यों करते हो
ठाकुरों की पूजा करो। जब भक्त धन्ना ने इसमें से परमात्मा की प्राप्ति कर ली तो क्या
आप क्यों नही कर सकते ? कबीर जी ने हँसकर कहा: कि पण्डित जी ! बात तो ठीक है, सचमुच
आपके ठाकुर हमारे काम की चीज हैं हम इनसे जरूर काम लेंगे। जिस प्रकार से धन्ना भक्त
ने लिया था। वह ब्राह्मण यह सुनकर बड़ा खुश हुआ और पत्थर के उस टुकड़े को जिसको वह
ठाकुर बताता था, रखकर चला गया। जाते हुए वह कहने लगा: कबीर जी ! मेरे ठाकुर की खूब
पूजा करना तुम्हारा पार उतारा हो जाएगा। कबीर जी ने हँसकर कहा: बहुत अच्छा पण्डित
जी !
पण्डित जी वहाँ से चले गए। अगले दिन वह वापिस आए। कबीर जी ने कहा:
पण्डित जी ! सचमुच ही तुम्हारे ठाकुर जी बहुत अच्छे हैं, वह तो कल से हमारे कामों
में लगे हुए हैं। यह सुनकर पण्डित खुश हुआ और बोला: कबीर जी ! एक बार मुझे ठाकुर जी
के दर्शन करवा दो। मैं अपनी आँखों से उनको तुम्हारा काम करते हुए देखना चाहता हूँ
और माथा टेकना चाहता हूँ। कबीर जी बोले: जो हुक्म महाराज ! यह कहकर वह पण्डित जी को
अपनी रसोई में ले गए। जहाँ पर लोई जी सिल पर मसाला पीस रही थी और सिलवटे के स्थान
पर पण्डित के द्वारा दी गई ठाकुर जी की मुर्ति थी। कबीर जी ने पण्डित जी से कहा कि
देख लो अपने ठाकुर जी को काम करते हुए। यह देखकर पण्डित जी क्रोध में बोले: कबीर जी
! आपने हमारे ठाकुर का अपमान किया है, आपकों इनका श्राप लगेगा। कबीर जी ने हँसकर कहा:
पण्डित जी ! श्राप क्यों लगेगा ? जब भक्त धन्ना जी ने तो इनसे धूप में जानवरों को
चराने का काम लिया था। हमने तो केवल रसोई में मसाले पीसने का ही तो काम लिया है।
कबीर जी की यह बात सुनकर पण्डित जी सोच में पड़ गए। कबीर जी का बात करने का ढँग कुछ
इस प्रकार का था कि पण्डित जी का मन झँझोर कर रख दिया गया था। उन्होंने सोचना शुरू
कर दिया कि कहीं वो ही तो गल्त नहीं है। क्या पत्थर के इस टुकड़े को परमेश्वर की तरह
समझकर पूजना मुनासिब भी है ? कबीर जी ने तब उस पण्डित जी को इस प्रकार सोचों में
डूबा देखा तो उन्होंने ज्ञान का एक तीर और मारा और बाणी उच्चारण की:
कबीर ठाकुर पूजहि मोल ले मनहठि तीरथ जाहि ।।
देखा देखी स्वांग धरि भूले भटका खाहि ।। अंग 1371
अर्थ: हे भले इन्सान ! एक आदमी ने ठाकुर मूल्य देकर लिए और मन
का हठ मानकर तीर्थों के चक्कर काटना शुरू कर दिए थे। उस बेचारे के पल्ले तो कुछ नहीं
पड़ा, परन्तु ओर लोग देखा-देखी करके ऐसा स्वाँग रचकर भटकते चले आ रहे हैं। कबीर जी
की इस व्यँग्यमयी बाणी के तीर से पण्डित जी के मन में से अभिमान की मैल धूल गई। उसे
अपने भ्रमों और वहमों में फँसे हुए का ज्ञान हो गया। उसने आगे से बुत पूजा, मूर्ति
पूजा से तौबा कर ली और कबीर जी से गुरू दीक्षा लेकर सदा के लिए उनके भक्तों की संगत
में शामिल हो गए।