41. अज्ञानता में खुशी
कबीर जी की संगत में एक दिन ज्ञान और अज्ञानता की चर्चा चल पड़ी। श्री धर्मदास जी ने
कहा– महाराज जी ! कई लोग कहते हैं कि ज्ञान की अपेक्षा अज्ञानता में ज्यादा खुशी
होती है। कबीर जी हँस पड़े और उन्होंने फरमाया– भक्तों ! अज्ञानी पुरूष खुश होता है
कि उसके साथ उसके स्वामी राम जी खुश हो गए हैं परन्तु उसकी हालत तो गरीब ‘‘बोले‘‘
जैसी होती है। मुक्ता मुनी और आमन देवी ने एक साथ पूछा कि महाराज ! किस ‘‘बोले‘‘
जैसी ? कबीर जी ने कहा– भक्तों ! आओ, आज तुम्हें एक बोले की साखी भी सुना देते हैं
जो केवल ना सुनने के कारण ही भूल करके भी खुश होता था, यह उस गरीब की अज्ञानता की
खुशी थी, जिसके सदके उसके मित्र उससे गुस्से होकर उसके दुशमन बन जाते थे। बाजार में
से बैंगन लेकर कँनमू नाम का बोला वापिस घर जा रहा था कि रास्ते में उसका एक मित्र
मिल गया। और बड़े प्रेम से पूछने लगा: मित्र ! राजी तो हो ? बोले ने हँसकर कहा:
मित्र ! यह बैंगन लेकर आया हूँ। उसका मित्र उसके इस बेतुके जवाब को सुनकर बड़ा
परेशान हो गया और फिर पूछने लगा: कँनसू ! घर बाल बच्चे तो राजी खुशी हैं ? बोले ने
हँसकर कहा: मित्र ! इनका भड़ता बनाकर खाऊँगा। मित्र ने पूरे जोर से पूछा: मित्र !
मैं बैंगन के बारे में नहीं पूछ रहा हूँ, बल्कि घर में वहुटी पुत्र और पुत्री राजी
है ? ये पूछ रहा हूँ। बोले ने कहा: भाई ! पहले आग में पकाऊँगा, फिर मिर्च और मसाले
लगाऊँगा, फिर घी में तलकर खा जाऊँगा। उसका मित्र उसकी इन बेतुकी बातों पर गुस्से
होकर अपने राह पर चला गया, परन्तु अज्ञानता के कारण गरीब बोला यह समझ के सन्तुष्ट
और खुश था कि उसने अपने मित्र की बातों का बड़े ठीक से उत्तर दिया है। इसी प्रकार इस
बोले कँनसू का एक मित्र बीमार हो गया और उसकी बीमारी की खबर मिलने पर वह उससे मिलने
के लिए उसके घर पर पहुँच गया।
कँनसू बोले ने कहा: मित्र ! अब कैसे हो ? मित्र बोला: बोले ! मर
रहा हूँ बचने की कोई आस नजर नहीं आती। बोला कंनसू खुशी प्रकट करता हुआ बोला: मित्र
! यह तो अच्छी बात है। राम ! ऐसा ही करे। यह सनुकर उसका मित्र जलकर कोयले हो गया।
कन्सू ने फिर पूछा: इलाज किसका करवाते हो ? मित्र ने चिड़कर कहा: कि इस समय जो काल
मेरे सिर पर सवार है और किसका इलाज करवाना है। कन्सू ने गम्भीरता से कहा: कि मित्र
! तुम भाग्यशाली हो जो ऐसा हकीम मिला है, जहाँ पर भी जाता है, रोग का सफाया कर देता
है। कँनसू ने विदा ली और वह रास्ते में सोच रहा था कि उसने बीमार मित्र की बीमारी
के बारे में पूछकर अच्छा किया है उसके मित्र के दिल को राहत पहुँची होगी। कबीर जी
यह साखी सुनाकर फरमाने लगे– भक्तों ! यह है अज्ञानी की खुशी। जो अन्धेरे में टक्करे
मारते हुए यह समझ लेते हैं कि वह सीधे अपनी मन्जिल की तरफ बढ़ रहे हैं। परन्तु
आखिरकार एक खडड में गिर जाते हैं और अपनी जान गवाँ बैठते है। अज्ञानी मनुष्य अपनी
आत्मा को माँज नहीं सकते। बल्कि पापों से और गन्दा कर लेते हैं और गँगा जाकर तन को
मल-मलकर धोने से यह समझ लेते हैं कि स्नान से मुक्ति के द्वार उनके लिए खुल गए हैं।