39. संतों को भोजन और उसका फल
कबीर जी भक्तों को नेकी के बारे में सुना रहे थे, उन्होंने कहा– सुनो भक्त जनो ! यह
उस समय की बात है जब मेरा विवाह नहीं हुआ था। मैं अपने पिता जी के साथ कपड़े बूनने
का कार्य करता था। हमने बड़ी मेहनत से रेश्म के धागे से बहुत ही सुन्दर कपड़े का थान
बूना। माता जी ने कहा कि यह थान बाजार ले जाओ और जो पैसे आऐं उससे घर का सामान आटा,
दाल और घी ले आओ। कबीर जी बताया कि वह बाजार में पहुँचे। कपड़ा एक सेठ को बहुत पसन्द
आया और उसने उसी समय बीस रूपये देकर उसे खरीद लिया। रूपये मेरी आस से ज्यादा मिले
थे। मैने आटा, दाल, घी और तमाम सामान खरीद लिया और एक रेहड़ी किराये पर लेकर उस पर
सामान रखकर घर की तरफ चल दिया। अभी मैं बाजार से निकला ही था कि तभी कई संत बोहड़ के
वृक्ष के नीचे नजर आए वह सभी उदास बैठे थे। मैंने उनके पास जाकर उनकी उदासी का कारण
पूछा तो उनमें से एक सफेद दाड़ी वाला संत बोला– भक्त ! संतों की यह संगत दो दिनों से
भूखी है। मैं सोच में पड़ गया। परन्तु तुरन्त ही मेरे मन में आया कि इससे अच्छा सौदा
और क्या हो सकता है। मैंने रेहड़ी का पूरा सामान वहीं पर उतार दिया और रेहड़ी वाले को
पैसे देकर विदा किया और संतों के लिए लँगर बनाने में जूट गया। लँगर तैयार हुआ और
संतों ने बड़े प्रेम से लँगर खाया और बाकी का राशन उन्होंने अगले दिन के लिए रख लिया।
मैं उस समय प्रेम के नशें में इतना डूब गया था कि बाकी के बचे हुए पैसे भी संतों को
दे दिए और वापिस चल पड़ा। रास्ते में मैंने सोचा कि घर जाऊँ तो किस मूँह से। रात आधी हो
चुकी थी। मैं कुछ दूर आकर एक पीपल के थड़े पर बैठ गया और सोचने लगा कि अब क्या करूँ
? आखिर मैनें फैंसला किया कि रात को घर पर नहीं जाना चाहिए। मैं वहीं थड़े पर ही
चादर बिछाकर सो गया और सोते ही मूझे गहरी नींद आ गई। अचानक किसी ने मूझे जगा दिया।
मेरे पिता जी मूझे जगाकर बिठाते हुए हँस रहे थे और कह रहे थे कि तुने इतना सामान कहाँ
से लेकर भेज दिया था। बैलगाड़ी वाला कितना सारा सामान और दाल, चावल, घी, नमक आटा
देकर चला गया और कह गया कि सेठ जी ने तुझे रोक लिया है। और तूँ जल्दी ही आ जाएगा
परन्तु तूँ यहाँ पर आकर क्यों सो रहा था। पिता जी की इन बातों का कोई उत्तर ना देकर
मैंने कहा कि नींद आ गई थी। चलो चलते हैं। रास्ते में मैं यही सोच रहा था कि यह क्या
रहस्य है ? इतना सारा सामान किसने भेज दिया ? घर पर पहुँचकर तो मेरी हैरानी और भी
बढ़ गई कि जितना राशन मैं संतों की सेवा के लिए देकर आया था उससे चार गुना राशन मेरे
घर पर आया हुआ था। मेरा सिर मेरे राम के आगे अपने आप झूक गया। मैं समझ गया कि नेकी
का मीठा फल जरूर मिलता है और कभी-कभी यह फल देने के लिए राम जी को आप ही आना पड़ता
है। कबीर जी से यह भेद की बात सुनकर श्री धर्मदास जी, मुक्ता मुनी जी और सँगत हैरान
रह गई, क्योंकि यह भेद कबीर जी ने पहली बार ही खोला था।