35. कबीर पँथ की स्थापना
कबीर जी ना तो हिन्दू थे और ना ही मुस्लमान किन्तू उनका धर्म ऐसा था जिसके सामने
हिन्दू और मुस्लमान दोनों ही सिर झूकाते थे। यह धर्म आगे जाकर कबीर पँथ के नाम से
प्रसिद्ध हुआ और बराबर चला आ रहा है। कबीर पँथ की स्थापना कबीर जी ने आप नहीं की थी
बल्कि उनके मिशन अनुसार उनके एक मुखी शिष्य श्री धर्मदास धनी ने की। श्री धर्मदास
जी धनी एक लखपति व्यापारी थे। वो कबीर जी के दर्शन करने के लिए बनारस में उस समय आए
थे जब कबीर जी की पण्डित सरबजीत के साथ ज्ञान चर्चा होने वाली थी। उन्होंने कबीर जी
से प्रभावित होकर शिष्य बनने की अभिलाषा दिखाई, परन्तु कबीर जी ने मन की शुद्धि करने
का उपदेश देकर उन्हें टाल दिया। दूसरी बार उन्होंने कबीर जी को मथुरा में मिलकर अपनी
इस विनती को दोहराया, परन्तु फिर भी कबीर जी ने यह परवान नहीं की। तीसरी बार यह
विनती लेकर बाँदूगढ़ में परिवार समेत कबीर जी से मिले, यहाँ पर पहले उनके लड़के को
गुरू दीक्षा मिली और फिर उन्हें भी मिल गई। गुरू दीक्षा प्राप्त करने के बाद कबीर
जी की संगत में धर्मदास जी को शिरोमणी शिष्य का स्थान प्राप्त हो गया और इस पोजीशन
से ही उन्होंने अपने गुरूदेव की के मिशन की पूर्ति के लिए कबीर पँथ चलाया। कबीर जोग
में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि कबीर जी ने इस पँथ की बुनियाद आप नहीं रखी
बल्कि वर्तमान कबीर पँथ श्री धर्मदास जी की स्थापना है। श्री धर्मदास जी कबीर पँथ
के पहले आचार्य बताए जाते हैं। कबीर जोग में यह लिखा है कि कबीर साहिब की अपनी
पोजीशन तो आचार्य से लाखों दरजे ऊँची थी। आचार्य तो उनका केवल एक शिष्य ही था, जिसकी
प्रेम और श्रद्धा देखकर कबीर जी ने उनको यह आचार्य होने का मान बक्शा। अभी भी
धर्मदास जी का मँत्र ही कबीर पँथ में शिष्य बनाने वालों को दिया जाता है, उसको कुँजी
कहते हैं। कुँजी इस प्रकार है:
आद नाम अजर नाम ।। ई नाम अदणी अकाम नाम ।।
पालात सिंध नाम ।। जही नाम है जीव का काम ।।
खुली कुंजी खुला कपाट ।। पांजी निरखी सुरत के घाट ।।
भरम भ्रत का बाधा गोला ।। जिही अरज धरम दास बोला ।।
कहे कबीर बचन प्रमान ।। यांही शबद सै हंसा लोक समान ।।
श्री धर्मदास धनी को कबीर पँथ के पहले आचार्य बनाने की बात श्री
कबीर जी महाराज ने बड़े खुले दिल से की। चाहे यह बात बहुत हद तक पहले गुप्त ही रखी
गई। परन्तु जब कबीर पँथ की स्थापना हो गई और वह सफलता से चलने लगा तो कबीर जी ने
अपनी बाणी में श्री धर्मदास जी को इस सफलता पर बाणी में बधाई दी और ताकीद की कि यह
भेद घर में ही रहे और बाहर न जाए। कबीर जी ने कहा:
धरम दास ते ही लाख वधाई ।। सारे भेद बाहर नही जाई ।।
कबीर जोग में लिखा है कि किसी कारण करके सारा भेद हमेशा के लिए
गुप्त रहा है और गुप्त होते होते वह बिल्कुल ही गुप्त हो गया। कहते हैं कि श्री
धर्मदास जी को पहले कबीर जी ने अपने चरणों में स्थान दिया। फिर रस्म अदा करने के
पहले उन्हें सतसंग करवाया और फिर सतसंग का मुखी बनाकर कबीर पँथ का मुखी बनने का मान
बक्शा। श्री धर्मदास जी ने यह पँथ चलाते अपने आप कुछ नहीं किया। बल्कि सारी की सारी
अगवाई अपने गुरूदेव कबीर साहिब जी से ली। कबीर जोग में इसका वर्णन बहुत विस्तार से
किया गया है और लिख दिया गया है जो इस संबंध में गुरूदेव कबीर और उनके शिष्य श्री
धर्मदास में होता था। कबीर पँथ एक रूहानी और विशाल पँथ है। उत्तरप्रदेश में इसका
दायरा काफी खुला है।