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34. कबीर जी की बाणी का प्रभाव

बनारस में एक धनी बनिया मगनराम रहता था। पहले वह धार्मिक विचारों का था परन्तू किशन लाल की बातें सुनकर उस पर उलटा असर हो गया, उसका मन धर्म से हटकर प्रेमलीला रचाने की तरफ दौड़ने लगा। एक दिन मोतीबाई नाम की सुन्दर नाचने वाली पर उसकी निगाह पड़ी तो उसने हमेशा के लिए उसी का होने का फैसला कर लिया। धन दौलत का घाटा तो था नहीं इसलिए धन दौलत के जोर पर उसने इस परी को आइने में उतारने के यत्न करने शुरू कर दिए। वह उसके चौबारे के चक्कर काटने लगा और उस पर माया लूटाने लगा। इस प्रकार उस वेश्या के जाल में फँसकर वह बूरी तरह तड़पने लगा। इस प्रकार चक्कर काटते हुए कई महीने बीत गए परन्तू उसने इस बनिये पर ध्यान ही नहीं दिया। वह अपने मित्रों में भी बदनाम हो गया और हाथ में भी कुछ नहीं आया। एक दिन उसने फैसला किया कि आज इस औरत से आखिरी फैसला किया जाएगा। ऐसा विचार करके वह मोतीबाई के चौबारे की तरफ चल दिया। वह इश्क तो कमा रहा था, परन्तू उसके दिल से अभी भी धार्मिक विचार खत्म नहीं हुए थे। वह चला जा रहा था कि तभी उसके कानों में एक साधू के मीठे गीत की आवाज आई, वह गा रहा था:

कबीर मन ते एक है चाहे जहां लगाए ।।
कै सेवा कर साध की कै विशे कमाए ।।

यह शब्द सुनकर मगन जी के पैर रूक गए। दो रास्ते इस शब्द ने उसके सामने पेश कर दिए थे, परन्तु किशन लाल का असर उसे गल्त रास्ते पर ले गया, ईश्क, अर्थात प्रेम लीला की पूर्ति के लिए वह मोतीबाई के चौबारे पर जा पहुँचा। वह कहने लगा: मोतीबाई ! जिस दिन मैंने तेरा नाच देखा है, बस दिल दे बेठा हूँ, अब तूँ हमेशा के लिए मेरी हो जा, मैं तेरे साथ गँधर्व विवाह करूँगा। मैं तुझे सोने-चाँदी से लाद दूँगा। मोतीबाई ने कहा: मगन ! मेरे तो हजारों दिवाने हैं, मैं एक की होकर क्यों रहूँ। फिर समाज भी मुझे तेरे साथ टिकने कहाँ देगा। मगन ने कहा: मोतीबाई ! मूझे सड़े समाज की कोई परवाह नहीं, मैं तो तेरे साथ नया समाज बनाऊँगा, अलग बिरादरी बना लूँगा। मोतीबाई ने कहा: मगन जी ! जो मेरे से भी सुन्दर अपनी पत्नी के होते हुए भी उसके साथ वफा नहीं निभा सका वो मेरे साथ क्या निभायेगा ? मगन तिखी आवाज में बोला: मोतीबाई ! मैं तुझे दिलों जान से चाहता हूँ। मोतीबाई गम्भीर होकर बोली: मगन ! अगर तूँ मुझे दिलों जान से चाहता है तो मैं तुझे हडडी और चमड़ी की गन्दगी में नहीं फँसने दूँगी। यही प्यार अगर तूँ अपने परिवार में दिखाए तो तेरा कल्याण होगा, दीन और दुनियाँ दोनों सँवर जाएँगे। मगन जी निराश होकर चौबारे से उतर आए, मोतीबाई की बेवफाई उसके दिल में चूभने लगी, उसमें बदले की भावना पैदा होने लगी। वह मरने-मारने की बातें सोचने लगा। उसके पैर गल्त रास्ते पर बड़ने के लिए उतावले होने लगे। परन्तु वही साधू उसको फिर बाणी का गायन करता हुआ दिखाई दिया। मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए मगन जी उसके पास जा बैठे वह मस्ती में गा रहा था:

पर नारी मीठी छुरी मत कोई करो प्रसंग ।।
दस मसतक रावन गए पर नारी के संग ।।
यह सुनकर मगन जी को अपनी गल्ती का अहसास होने लगा। साधू गाये जा रहा था:
कबीर माइआ मोहनी जैसी मीठी खांड ।।
सतिगुर की किरपा भई ना ते करती रांड ।।
मगन की ज्ञान की आँखें खुलने लगी। साधू ने फिर से एक और बाणी गायन की:
मन रहिणा हुशियार इक दिन चोर नरोई आवेगा ।।
तीर तबर तलवार ना बरछी, नहीं बंदूक चलावेगा ।।
आवत जात लखे नही कोइ, घर विच दूंद मचावेगा ।।
ना गढ़ तोड़े ना गढ़ फोड़े ना वोह रूप विखावेगा ।।
नगर से कुछ काम नहीं है तुझे पकड़ ले जावेगा ।।
नहीं फरियाद सुणेगा तेरी ना कोई तुझे बचावेगा ।।
लोग कुटंब परवार घनेरे, ऐक काम नहीं आवेगा ।।
सुख संपत धन धाम बुराई तिआग सगल तूँ जावेगा ।।
ढूंढे पता मिले नहीं तेरा खोजी खोज ना पावेगा ।।
है कोई ऐसा संत बिबेकी गुरू गुण आण सुणावेगा ।।
कहे कबीर सोऐ जो खोऐ, जागेगा सो पावेगा ।।

इस बाणी से मगन के दिल में शान्ति आ गई। मगन जी ने हाथ जोड़कर विनती की: महाराज ! आपके शब्दों ने मेरे दिल में उतरकर हलचल मचा दी है, कृप्या करके बताओगे कि आप कौन हो ? साधू का संक्षेप में उत्तर था: भक्त ! मैं कबीर हूँ। मगन ने हाथ जोड़कर कहा कि कृप्या उसे भी गुरू दीक्षा दें। कबीर जी ने मगन को गुरू दीक्षा दी और फिर आलोप हो गये। मगन जी को ज्ञान हो गया और वह साधू बनकर राम जी की भक्ति में लीन हो गए। नगर में यह बात मशहूर हो गई। मोतीबाई यह खबर सुनकर तड़फ उठी, उसके दिल में एक हूक निकली कि हाय ! मैं उसके प्रेम को न समझ सकी। एक दिन वह उसी वेश्वा वाली गली में से निकल रहा था। उसने देखा कि कुछ विद्यार्थी कबूतर हाथ में पकड़कर उनकी गर्दन मरोड़ने का यतन कर रहे हैं।  उसने पूछा: बेटा ! तुम इन कबूतरों को क्यों मार रह हो ? एक विद्यार्थी ने कहा: महाराज ! हमने मेहनत करके पकड़े हैं, मारकर खाऐंगे। साधू हँसकर बोला: क्या तुम इनको जिन्दा भी कर सकते हो ? सारे विद्यार्थी बोले: नहीं ! साधू बोला: सज्जनो ! जब तुम इन्हें जिन्दा नहीं कर सकते तो इनकी जान लेने का भी तुम्हें कोई हक नहीं। छोड़ दो इन्हें। साधू मगन जी के उपदेश का कुछ ऐसा असर हुआ कि विद्यार्थियों ने उन्हें छोड़ दिया। मोती बाई जी ने मगन को देखा तो वह अपने उस पाप का पश्चात्ताप करने को फैसला किया जो उसने मगन का प्यार ठुकराकर किया था। उसने मगन साधू का पीछा करना प्रारम्भ कर दिया। साधू मगन ने जब नगर के बाहर एक वृक्ष के नीचे आसन बिछाकर डेरा लगाया तो मोतीबाई ने उसके चरण पकड़ लिए। और विनती करने लगी कि: हे प्यारे मगन जी ! मैं अपने पाप का पश्चात्ताप करके हमेशा के लिए तुम्हारी बनने आई हूँ, मेरे गुनाह माफ कर दो। साधू मगन ने उत्तर दिया: मोतीबाई ! वह मगन मर चुका है, जिसको तेरी जरूरत थी, अब तो यह मगन राम नाम में मगन है यानि कि मैं अब राम का मगन हूँ, इसलिए तूँ किरपा करके चलती बन। मोतीबाई बाली: मगन जी ! मुझे माफ कर दो मैं आपकी सब कुछ बनूँगी। आपके साथ विवाह कर लूँगी। मगन ने बोला: मोतीबाई ! यहाँ से चली जा। मोतीबाई: मगन जी ! यह बताओ कि क्या आपके दिल में मेरे लिए प्रेम नहीं रहा ? मगन: मोतीबाई ! मैने कहा ना यहाँ से चली जाओ। मोतीबाई: मगन जी ! मैं इस बात का उत्तर लिए बिना नहीं जाऊँगी। आखिर मगन ने कहा: मोतीबाई ! आप आधी रात को आना, इस बात का उत्तर मिल जायेगा। मोतीबाई यह सुनकर चली गई। मोतीबाई के जाने के बाद मगन जी ने कबीर जी का एक शब्द सुना जो कि पास के ही मन्दिर में कोई प्रेमी गा रहा था:

चले चले सभ कोई कहे, विरला पहुंचे कोइ ।।
ऐक कनक और कामनी दुरगा घाटी दोइ ।।
एक कनक और कामनी, बहुतक कीऐ उपाइ ।।
देखे ही बिस चड़े, चाखत ही मर जाइ ।।

आधी रात को मोतीबाई आ गई और कहने लगी कि: मगन जी ! मेरे सवाल का जवाब दो ? मगन जी ने कहा: मोतीबाई ! मैं मन्दिर जा रहा हूँ, जब मन्दिर का घण्टा बजे, तब आ जाना तुम्हें उत्तर मिल जाएगा। मोतीबाई ने कहा: मगन जी ! लेकिन मन्दिर के दरवाजे तो बन्द हो चुके हैं। मगन जी: कि मोतीबाई ! राम के भक्तों के लिए दरवाजे कभी बन्द नहीं होते। यह कहकर मगन जी मन्दिर की तरफ चले गए।  थोड़ी देर के बाद जब घण्टा बजने की आवाज आई तो मोतीबाई वहाँ पर पहुँची तो धण्टे के साथ मगन जी की लाश लटक रही थी, उसको अपने सवाल का उत्तर मिल चुका था कि मगन उसको चाहता था, परन्तू कबीर जी की बाणी के प्रभाव के कारण इस जन्म में साथ सँभव नहीं समझता था।  उसे लाश बोलती हुई सुनाई दी: ओ मोतीबाई ! अगले जन्म में मिलेंगे। यह सुनकर मोतीबाई ने अपनी साड़ी के पल्लू में से एक कटार निकाली और कहने लगी, मगन जी ! मैं अपने इस पापी शरीर का खात्मा कर रही हूँ, सचमुच ही यह तुम्हारे योग्य नहीं था। अगले जन्म में अछोह और पवित्र शरीर से आपके चरणों की दासी बनूँगी। वह कटार को अपनी छाती में उतारकर वहीं घण्टे के नीचे सदा की नींद सो गई। इस संबंध में एक बात यह भी प्रचलित है कि मोतीबाई ने आत्महत्या नहीं की थी। वह आत्महत्या करने ही जा रही थी कि तभी कबीर जी प्रकट हो गए और उसे गुरू दीक्षा दी, जिसे पाकर मोतीबाई ने नीच धोखा छोड़कर साफ और पवित्र जीवन गुजारना शुरू कर दिया और कबीर जी की संगत में शामिल होकर भक्ति और सेवा में तन, मन और धन लगा दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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