33. सरबजीत पण्डित की हार
जो रूहानीअत वालड़ा भरिआ होवे भण्डार ।।
उसदे सनमुख जो खड़े उह जावेगा पार ।।
कबीर जी की बढ़ती हुई उपमा को देखकर एक सरबजीत नामक पण्डित ने
उन्हें वाद-विवाद के लिए ललकारा। विद्वानों और संतों का एक मेला सा एकत्रित हो गया।
बड़े-बड़े मुस्लमान और हिन्दू इस चर्चा के लिए आ जुड़े। उसमें छत्तीगढ़ के महात्मा
धर्मदास भी थे। नवाब बिजली खान पठान और बीर सिँह बुँदेला भी था। पण्डित सरबजीत बहुत
ही तैयार होकर आया था। वह सभा में अपने अहँकार को त्यागने के लिए तैयार नहीं हुआ और
अपने मूहँ से आप ही कहता रहा कि यह जुलाहा मेरे से क्या लोहा लेगा। उसकी इस अहँकार
भरी बातें सुनकर नवाब बिजली खान पठान को बहुत बूरा लगा और वह कहने लगा– पण्डित जी !
यह तो अपने मूँह मियाँ मिट्ठू होने वाली बात हुई। कबीर जी इस समय नम्रता से बैठे
हुए थे। कबीर जी ने कहा: पण्डित जी ! भला आप जैसे महान विद्वान से मेरे जैसा गरीब
जुलाहा चर्चा में कैसे लोहा ले सकता है। कबीर जी की यह बात सुनकर सबको बड़ी हैरानी
हुई। सभी यह सोचकर आए थे कि बहुत बड़ी ज्ञान चर्चा होगी और फिर जीत-हार का फैसला होगा,
परन्तु कबीर जी ने तो बिना किसी शर्त के हथियार डाल दिए थे। यह सुनकर उनके हिमायती
और श्रद्धालू बड़े परेशान हुए और पण्डित सरबजीत के साथी उसकी जय-जयकार करने लगे।
कबीर जी ने नम्रता से पण्डित सरबजीत से कहा: पण्डित जी महाराज ! आप यह लिखकर दे दो
कि कबीर ने हार मान ली है तो इस वार्त्तालाप का यहीं समाप्त किया जाये। सरबजीत ने
सोचा कि इतनी जल्दी जीत हो जायेगी इसका ख्याल तो उसे सपने में भी नहीं आया था। वह
खुशी से फूला नहीं समा रहा था।
कबीर जी ने फिर कहा: यह लो कलम दवात ओर कागज ! इस पर लिख दो कि आप जीते और कबीर हारा।
पण्डित सरबजीत ने लिखना शुरू किया कि सरबजीत जीता और कबीर हारा। परन्तु उसके द्वारा
लिखा गया कि कबीर जीता और सरबजीत हारा। उसने उसे काटकर दुबारा लिखा परन्तू उसे पढ़ा
तो उसका सिर चकरा गया क्योंकि इस बार भी उसने लिखा तो यही था कि सरबजीत जीता और
कबीर हारा, परन्तू उसने जब पढ़ा तो यह लिखा हुआ था कि कबीर जीता और सरबजीत हारा। इस
प्रकार वह बार-बार प्रयास करता परन्तु यही लिखा हुआ दिखाई देता कि कबीर जीता और
सरबजीत हारा। इस प्रकार पूरा कागज ही खत्म हो गया। कबीर जी ने उसकी तरफ दूसरा कागज
बढ़ा दिया। परन्तू हर बार वही हुआ कि कबीर जीता और सरबजीत हारा। इस प्रकार उसने कई
कागज काले कर दिए। अन्त में हारकर वह कबीर जी के चरणों में आ गिरा और बोला: महाराज
! आप जीते और मैं हारा। मैं आपकों गुरू मानता हूँ। ज्ञान देकर कृतार्थ करें। यह
देखकर सारी सभा में कबीर जी की जय-जयकार होने लगी। कबीर जी ने नम्रता से कहा:
पण्डित जी महाराज ! भला मैं गरीब जुलाहा आपकों क्या ज्ञान दे सकता हूँ। पण्डित
सरबजीत बोला: महाराज ! मैं पहले ही बहुत शर्मिन्दा हो चुका हूँ, आप और शर्मिन्दा न
करें। दास समझकर कल्याण का रास्ता बताऐं। कबीर जी ने मुस्कराकर कहा: सरबजीत !
अहँकार त्यागो और नम्रता ग्रहण करो। अहँकार यह दुनियाँ भी खराब करता है और अगली भी
ठीक रहने नहीं देता। जबकि नम्रता इस दुनियाँ को भी सँवारती है और अगली दुनियाँ को
भी।