32. कबीर जी ना हिन्दू ना मुस्लमान
कबीर जी का जन्म मुस्लमान जुलाहे के घर पर हुआ। परन्तु उनकी आत्मिक अवस्था इतनी ऊँची
थी कि वह न तो मुस्लमान बने और नाही हिन्दू। बने तो केवल एक उच्चकोट्टि के भक्त,
संत और महात्मा। उनकी जुबान पर हमेशा राम का ही नाम रहता था। अयोध्या वाले राम नही,
बल्कि यहाँ पर परमात्मा की बात हो रही है। राम यानि में रोम-रोम में बसा हुआ
परमात्मा। (नोट– अयोघ्या वाले राम, वृँदावन वाले कृष्ण और जन्में सारे महापुरूष और
गुरू आदि, यह सब परमात्मा नहीं हैं, बल्कि परमात्मा ने इन्हें भेजा होता है अपना
पैगम्बर बनाकर, ये सभी परमात्मा का पैगाम लेकर आते हैं, परन्तु हिन्दुस्तान में
महापुरूषों को ही परमात्मा बनाकर उनकी पूजा करने लग जाना एक बहुत ही पूरानी और
खतरनाक बीमारी है, क्योंकि हिन्दूस्तान में यह एक धँधा बन गया है और जिसे परमात्मा
की जानकारी होती है, वह देना नहीं चाहता, क्योंकि इससे धँधा खराब होता है)।
ना हिन्दू ना मुस्लमान इक राम के भक्त ।।
इहु कबीर सुनेहड़ा सुण रे कुल जगत ।।
कबीर जी को जो भी पाखण्ड दिखाई दिया उसका उन्होंने खण्डन किया
चाहे वह मुस्लमान ने किया हो या फिर हिन्दू द्वारा किया गया पाखण्ड हो। एक बार एक
जहाँगशत नाम का मुस्लमान संत उनसे मिलने आया। उसने अपने आने की सूचना पहले ही दे दी
थी। जब वह आया तो कबीर जी बाहर अपने दरवाजे पर सूअर खड़ा हुआ था। मुस्लमान लोग सूअर
को अपने धर्म का वैरी समझकर नफरत करते हैं। अतः वह वापिस जाने लगा। कबीर जी आप उठकर
उसके पास आए। कबीर जी ने प्रेम से बोला: महाराज ! आप वापिस क्यों जा रहे हो।
जहाँगशत ने सूअर की तरफ इशारा कर दिया। जहाँगशत ने कहा: महाराज ! आपने इसे यहाँ पर
बाँधकर मेरे इस्लामी धर्म को चोट पहुँचाई है। कबीर जी ने हँसकर कहा: नहीं संत जी !
राम जी का भक्त कभी भी किसी को नाममात्र भी चोट नहीं पहुँचा सकता। जहाँगशत ने गुस्से
से कहा: कबीर जी ! फिर यह क्या है ? कबीर जी गम्भीर होकर कहने लगे: संत ! जी इस
गन्दगी को मैंने घर से निकालकर बाहर कर दिया है, क्योंकि गन्दगी दिल में नहीं रखनी
चाहिए और बाहर निकाल देना चाहिए। यह सुनकर जहाँगशत की आँखें खूल गईं और वह कबीर जी
के बड़प्पन के आगे सिर झूकाकर उपदेश ग्रहण करने लगे। कबीर जी ने जो इस्लाम धर्म में
गल्त बातें देखी तो वह उसका खण्डन करने लगे और जो हिन्दू धर्म में बातें गल्त देखी
उसका भी खण्डन करने लगे। उन्होंने जब मुल्ला को मस्जिद में से बाँग देते हुये सुना
तो आपने बाणी कही:
कबीर मुलां मुहारे किआ चढहि सांई न बहरा होइ ।।
जा कारदि तूं बांग देहि दिल ही भीतरि जोइ ।। अंग 1374
किसी काजी ने हज के बारे में वकालत करनी शुरू की तो कबीर जी कहने
लगे– सज्जन पुरूष ! मैं भी हज के लिए गया था। परन्तु मेरा खुदा, मेरा राम, इस कार्य
से नाराज हो गया था। वो कहते थे कि यह बात तुझे किसने बता दी कि मैं केवल एक ही जगह
पर रहता हूँ और कहीं नहीं। मैं तो हर जगह मौजूद हूँ। रोजे का भी कबीर जी ने खण्डन
किया है और कहा है कि अजीब बात है कि साल के 12 महीने में केवल एक महीने ही रब मिलता
है और वह भी भूखे रहकर परन्तू 11 महीनों में बिलकुल भी नहीं मिलता। अपनी बाणी में
उन्होंने यह कहा है:
गिआरह मास पास कै राखे ऐकै माहि निधाना ।। अंग 1349
सुन्नत के बारे में तो कबीर जी ने कहा है कि अगर इसके बिना
मुस्लमान नहीं कहलाते तो खुदा अपने आप क्यों नहीं कर देता। उन्होंने बाणी में कहा:
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥ अंग 477
इसी प्रकार से कबीर जी ने हिन्दूओं की उन बातों का खण्डन किया
है, जिन्हें वह बेअर्थ समझते थे। इसके पहले हम बता चुके हैं कि अँघी श्रद्धा का
खण्डन करते हुए उन्होंने अपने गुरू श्री रामानँद जी का भी लिहाज नहीं किया था। इसी
प्रकार से जनेऊ का खण्डन करते हुए मुकन्द नामक पण्डित को कहा था कि तुम तो एक छोटा
सा धागा बाँधकर अपने आप को बहुत ऊँची जाति का समझते हो और हम जुलाहे तो इस धागे से
रोज ही कई थान बनाते हैं और यह हमारे अंग संग हमेशा रहता है और हम नीच जाति वालों
के हाथों से बना हुआ सूत का धागा तुम पहनते हो और अपने आपको बड़ा समझते हो। कबीर जी
ने बाणी कही:
हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥
तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥
मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥
जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ ॥
हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥
कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥
तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥
तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥ अंग 482
अर्थ: जो सुत का धागा जनेऊ पहनकर कोई ब्राहम्ण हो सकता है तो हम
तो जुलाहे हैं और हमारे यहा पर तो सूत के थान के थान पड़े रहते हैं। तुम जुबान से
वेद और गायत्री मँत्र पड़ते हो पर मेरे तो दिल में ही प्रभु का नाम है। नाम ही नहीं
बल्कि प्रभु गोबिन्द ही दिल में बसता है। यह बताओ जब परमात्मा हिसाब पूछेगा, तब क्या
जवाब दोगे। हम तो सदा अरदास करते रहते हैं कि हम तो गाय हैं और आप गायों को चाहने
वाले श्री कृष्ण हो जो जन्म से हमारी रक्षा कर रहे हो। जो कोई किसी की रक्षा नहीं
करता तो उसका मालिक कैसे हो सकता है ? यहाँ पर यह ब्राहम्ण हैं और मैं काशी नगरी का
जुलाहा हूं, मेरे ज्ञान को समझो। यह ब्राहम्ण सदा अमीर और राजाओं का आसरा रखता है
पर मैं तो एक परमात्मा का ही आसरा रखता हूँ। उसी पर मुझे भरोसा है। इस प्रकार से यह
सिद्व होता है कि कबीर जी न हिन्दू थे और न मुस्लमान। उनका धर्म तो एक ऐसा धर्म था
जिसे हिन्दू और मुस्लमान दोनों ही पसन्द करते थे। कहना ही होगा कि कबीर जी का धर्म
इन्सानियत का धर्म था और यही धर्म श्री गुरू नानक देव साहिब जी ने भी चलाया। जो जीता
जागता सिक्खों का रूप है।