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31. लोई जी गुरू के रूप में (भाग-2)

एक बार कबीर जी ने साहूकार से एक सौ रूपये लिए और साधू संतों पर खर्च कर दिए और इकरार किया कि कुछ महीने के बाद सूद समेत दूँगा। महीने निकल गए। वह साहूकार भी बड़ा बे-दर्द था उसने काजी की कचहरी में अर्जी दे दी और डिगरी करवाकर कुर्की ले ली। कबीर जी के एक प्रेमी ने आकर बताया तो वह बड़े परेशान हुए। उन्होंने अपनी पत्नी लोई जी से कहा कि घर का सारा सामान पड़ौसियों के यहाँ पर रख दो। जिससे साहूकार उनको कुर्क ना करा सके। और मैं चार दिन इधर-उधर चला जाता हूँ जब रूपये होगें तो साहूकार को देकर उससे देरी के लिए क्षमा माँग लूँगा। लोई जी ने कहा: स्वामी ! मुझे निश्चय है कि राम जी अपने भक्त की कभी कुर्की नहीं होने देंगे। आपको कहीं पर भी जाने की जरूरत नहीं है। कबीर जी ने अपनी पत्नी का निश्चय देखा, फिर भी कहा: लोई ! फिर भी मुझे कुछ दिन कहीं पर बिताने चाहिए। लोई जी: स्वामी जी ! इसकी कोई जरूरत नहीं है। इस काम को राम जी आप ही सवारेंगे। लोई जी ने निश्चय के साथ कहा। कबीर जी मुस्कराकर बोले: प्यारी लोई ! यही तो तेरा गुरू रूप है। लोई जी ने कहा: स्वामी जी ! गुरू बोलकर मेरे सिर पर भार ना चढ़ाओ। कबीर जी: लोई जी ! इसमें भला सिर पर भार चढ़ाने वाली कौनसी बात है। जो उपदेश दे, उसको गुरू मानना ही पड़ेगा। कबीर जी अपनी पत्नी के साथ बात करने में इतने मग्न हो गये कि उन्हें साहूकार और कुर्की वाली बात ही भूल गई। रात हो गई परन्तु साहूकार नहीं आया।  सोने से पहले कबीर जी ने फिर कहा: लोई ! ऐसा लगता है कि साहूकार सबेरे पिआदे लेकर कूर्की करने आएगा। लोई जी ने दृढ़ता के साथ कहा: स्वामी जी ! जी नहीं, बिल्कुल नहीं, कतई नहीं, कोई कूर्की नहीं होगी। परमात्मा जी उसे हमारे घर पर आने ही नहीं देंगे। कबीर जी: लोई ! तुने मेरे राम से कुछ ज्यादा ही काम लेना शुरू कर दिया है। लोई जी: स्वामी ! जब हम उसके बन गए हैं तो हमारे काम वो नहीं करेगा तो कौन करेगा ? तभी अचानक किसी ने दरवाजा खटखटाया। लोई जी ने उठकर दरवाजा खोला तो सामने साहूकार का मूँशी खड़ा हुआ था, जो साहूकार की तरफ से तकाजा करने जाया करता था। लोई जी ने मूँशी से पूछा: क्यों राम जी के भक्त ! हमारी कुर्की करने आए हो ? मूँशी नम्रता से कहा: जी नहीं, माता जी ! आपकी कुर्की करने कोई नहीं आएगा। क्योंकि जब हम कल कचहरी से कुर्की लेने गए तो वहाँ पर एक सुन्दर मुखड़े वाला और रेश्मी वस्त्र धारण करने वाला सेठ आया हुआ था। उसने हमसे पूछा कि आपको कितने रूपये कबीर जी से लेने हैं। साहूकार ने कहा कि 100 रूपये और सूद के 30 रूपये। उस सन्दुर मुखड़े वाले सेठ ने एक थैली साहूकार के हवाले कर दी और कहने लगा कि इसमें पाँच सौ रूपये हैं। यह कबीर जी के हैं और हमारे पास सालों से अमानत के तौर पर पड़े हुए हैं। जितने तुम्हारे हैं आप ले लो और बाकी के कबीर जी के घर पर पहुँचा दो। साहूकार जी उनसे और बातचीत करना चाह रहे थे, परन्तु वह पता नहीं एकदम से कहाँ चले गये जैसे छूमँतर हो गए हों। यह कौतक देखकर साहूकार पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह समझ गया कि कबीर जी कोई इलाही बन्दे हैं और वह उनकी कुर्की करके गुनाह के भागी बनने जा रहे थे। साहूकार जी ने यह थैली आपके पास भेजी है, इसमें पूरे पाँच सौ रूपये हैं। साहूकार जी ने कहा है कि कबीर जी उनके रूपये भी धर्म के काम में लगा दें और उनका यह पाप बक्श दें। लोई जी ने कबीर जी से कहा: स्वामी ! राम जी की भेजी हुई यह माया की थैली अन्दर उठाकर रखो। कबीर जी मुस्कराकर बोले: कि लोई जी ! इस बार राम जी ने तेरे निश्चय अनुसार कार्य किया है। इसलिए थैली तुझे ही उठानी पड़ेगी। लोई जी: कि नहीं स्वामी ! राम जी हमारे दोनों के साँझें हैं। इसलिए आओं मिलकर उठाएँ। दोनों पति-पत्नी अपने राम का गुणगान करते हुये थैली उठाकर अन्दर ले गए। उसी दिन कबीर जी के घर पर एक बहुत बड़ा भण्डारा हुआ। जिसमें वह सारी रकम खर्च कर दी गई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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