30. लोई जी गुरू के रूप में (भाग-1)
कबीर जी की सुरत जब लोभ और लालच से एकदम ही ऊँची चली गई तो उन्हें अपने आप पर तगड़ा
मान अनुभव होने लग गया। माया, मोह से वह दूर रहते थे, परन्तु उस दूर रहने की बात
करने से वह अपनी पत्नी से कभी भी नहीं झिझकते थे। लोई जी की आत्मिक दशा भक्त जी की
सँगत के कारण बहुत ही ऊँची हो गई थी। वह हमेशा इस बात का ध्यान रखती थी कि भक्ति और
निरलोभता का अहँकार उसके पति को ना ले डूबे। एक दिन कबीर जी बाहर से खुशी-खुशी आए
और बोले: सुन भाग्यों वालिए ! हमारे परमात्मा ने हमारी आत्मिक दशा (सुरत) कितनी ऊँची
कर दी है ? लोई जी ने पूछा: स्वामी जी ! वह कैसे ? कबीर जी ने बड़े ही चाव से बताया:
लोई जी ! अब हम मिट्टी और सोने को एक समान जानने लग पड़े हैं। लोई जी ने मुस्कराकर
पुछा: स्वामी ! वह तो मैं जानती हूँ, परन्तु यह बताओ कि आज कौनसा तीर मारकर आए हो,
जो इतना खुश हो रहे हो ? कबीर जी: लोई ! आज मुझे रास्तें में पड़ी हुई बहुत सारी सोने
की मोहरें मिलीं। लाई जी: स्वामी ! फिर क्या हुआ ? कबीर जी: वह सोने की थी, परन्तु
मैंने उन्हें मिट्टी समान माना और उन पर मिट्टी डालकर आगे चला गया। लोई जी: स्वामी
! लगता है कि तुम्हारा मन उस समय अडोल नहीं था। कबीर जी: लोई ! वो कैसे ? लोई जी–
मेरे स्वामी जी ! यह बताओ कि जब तुमने सोने की मोहरों को मिट्टी ही समझा था तो उसे
उसी तरह क्यों नही रहने दिया, उस पर मिट्टी क्यों डाल दी ? यह सुनकर कबीर जी ने इस
प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और हँसने लग पड़े। लोई जी ने फिर कहा: स्वामी ! मोहरों
पर मिट्टी डालना तो मन की कमजोरी को प्रकट करता है। अगर कोई देखता हो तो वह यही
समझेगा कि आपने लालचवश वह मिट्टी में छिपा दी हैं और फिर आकर ले जाऐंगे। यह तो मेरे
प्यारे पति की सुरत (आत्मिक दशा) ऊँची होने का सबूत नहीं है। कबीर जी ने मुस्कराकर
कहा: लोई ! तेरा उपदेश तो गुरू महाराज के जैसा है। कबीर जी का इशारा स्वामी रामानँद
जी की तरफ था। कबीर जी ने कहा: लोई ! मैं तुझे गुरू रूप में प्रवान करता हूँ। लोई
ने शरमाकर कहा: स्वामी जी ! आप मेरे मालिक हो। आप पर राम जी की अपार कृपा है। किन्तु
मुझे डर लगता है कि कहीं आपमें अहँकार न आ जाए। मुझे इस बात का पूरा-पूरा ख्याल रखना
पड़ता है। कबीर जी: लोई जी ! जब तुम इस बात का ख्याल रखकर उपदेश दे रही हो, तो
तुम्हारा रूप खास गुरू वाला होता है।