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29. संतो के कार्य रब (परमात्मा) आप करता है

भक्त कबीर जी की शोभा सुनकर काशी के कुछ ईष्यालू लोग बहुत जला करते थे और हमेशा एक ऐसे मौके की ताड़ में रहते थे कि कबीर जी को पेरशान और बदनाम किया जा सके। उनके लिए ऐसा मौका उस समय आ गया जब कबीर जी के घर में तँगी थी और रात को चूल्हा भी गर्म नहीं हुआ था। ईर्ष्यालूओं ने एक शरारत की और पूरे शहर में हल्ला मचा दिया कि कबीर जी सारे लोगों को पक्का भोजन दे रह हैं। हर किसी को ढाई-ढाई सेर मिठाई मिलेगी। इस मकसद के लिए उन्होंने ईष्यालूओं के द्वारा शहर में ढिँढोरा भी पिटवा दिया था और आपस में गप्पे भी मारने लगे थे कि बड़ी अकड़ में था यह जुलाहा पर अब देखेंगे कि इसकी इज्जत किस प्रकार से मिट्टी में मिलती है। इस सारी शरारत का कबीर जी और लोई जी का पता नहीं था। अचानक ही जब सैकड़ों आदमियों ने कबीर जी की जय-जयकार बोलते हुए उनके घर के सामने पँगत लगानी शुरू कर दी तो कबीर जी को इस शरारत का पता लगा। परन्तु अब हो भी क्या सकता था। परन्तु खाने के लिए तो घर में एक मुट्ठी आटा भी नहीं था तो इतनी संगत को वो भी प्रत्येक को ढाई-ढाई सेर मिठाई कहाँ से देते ? कबीर जी और लोई जी ने सलाह की और दोनों चुपचाप घर से खिसककर नगर से दूर एक खोले में आ छिपे। यह सोचकर कि जब लोग भला-बूरा कहकर वापिस चले जाऐंगे तो देर रात में वापिस आ जाऐंगे। परन्तु उनके घर में तो कुछ और ही कौतक हो रहा था। पँगतें अभी पूरी तरह से लगी भी नहीं थीं कि मिठाई बरताई जाने लगी। बरताने वाला कोई और नही आप कबीर जी थे। वह झोलियाँ भर-भरकर बरता रहे थे और लोग उसकी जय-जयकार बुला रहे थे और झोलियाँ भर-भरकर वापिस आ रहे थे। खेल उल्टा होता देखकर, शरारत करने वाले हैरान थे कि यह क्या हो रहा है। हमने तो ये समझकर नाटक की रचना की थी कि इस जुलाहे की इज्जत मिट्टी में मिलती हुई देखकर बहुत खुश होंगे। परन्तु यहाँ पर तो उलटी इज्जत बड़ रही है। परन्तु यह लोग परमात्मा की लीला समझ ही नहीं सके।

यहाँ पर खुले भण्डारे बरताए जा रहे थे और उधर कबीर जी और लोई शहर से दूर खोले में बैठे सोच रहे थे कि उनके पीछे उनके घर की क्या बीती होगी ? तभी वहाँ से एक मण्डली कबीर जी की जय-जयकार करती हुई निकली। कबीर जी के कान खड़े हो गए और जब उन्होंने अपनी जय-जयकार सुनी तो सब कुछ समझ गए। फिर भी तसल्ली के लिए उनसे जाकर पूछा कि आप कबीर जी की जय-जयकार क्यों कर रहे हो। वह सब बोले कि आप नहीं जानते कि कबीर जी के घर पर मिठाईयों का पक्का लँगर लगा हुआ है और हर एक को ढाई-ढाई सेर मिठाई मिल रही है। उन्होंने मिठाई दिखाई और कहा अभी भी समय है, वहाँ पर जाकर मिठाई ले आओ। यहाँ पर भूखे क्यों बैठे हो। यह सुनकर कबीर जी खोले में आकर लोई जी से बोले: लोई ! वह आ गए हैं और मिठाई बाँट रहे हैं। लोई जी ने हैरानी से पूछा: कौन जी !कबीर जी ने हँसकर कहा: और कौन ! हमारे राम जी। वह हमारे घर पर आ गए हैं और मिठाई बाँट रहे हैं। दोनों जल्दी से घर पर पहुँचे और क्या देखते हैं कि भण्डारा जोरों से चल रहा है। सामने कबीर जी ही खड़े बरता रहे हैं। यह देखकर लोई जी और भी ज्यादा हैरान हो गईं। परन्तु कबीर जी कोई हैरान नहीं हुए, वह मुँह और सिर लपेटकर उस स्थान पर पहुँच गए। बरताते हुए कबीर जी मुस्कुराए। बाहर से पकड़कर अन्दर ले गए। वहाँ पर मिठाईयों के अम्बार लगे थे, दिखाकर कहा– भक्त ! दिल खोलकर बरताओं, यह खत्म नहीं होगा। फिर बोले– भाई ! इतना बहुत काम तो हम कर नहीं सकते। अब हम चलते हैं और तुम अपना काम सम्भालो। यह कहकर उन्होंने कबीर जी को गले लगा लिया। कबीर जी प्रभू मिलन की मस्ती के साथ आँखें बन्द किए रहे, जब आँखें खोली तो वह आप ही थे। परमात्मा जी जा चुके थे। फिर वो रात तक भण्डारे बरताते रहे और शरारत करने वाले जलते रहे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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