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27. विचित्र लीला

पहुँचे हुए महापुरूष कई बार अपने जीवन में ऐसी विचित्र लीला रचकर सँसार के लोगों के सामने आते हैं कि लोग हैरान हो जाते हैं। परन्तु साथ ही साथ वो इस बात का भी ख्याल रखते हैं कि लोगों की श्रद्धा भावना ही ना उठ जाए, इस ख्याल से उनकी विचित्र लीला का अन्त बड़ा ही शिक्षाप्रद भरपूर और चमत्कार वाला होता है। ऐसी विचित्र लीला एक दिन कबीर जी ने भी रचाई, जिसका वर्णन हम यहाँ पर कर रहे हैं। एक दिन लोगों ने उनको काशी के बाजारों में ऐसी हालत में देखा कि जिसका उन्होंने कभी सपने में भी ख्याल नहीं किया होगा। कबीर जी शराबियों की तरह बातें कर रहे थे और एक कँजरी (वेश्या) उनकी बगल में थी। वो शराबियों की तरह लड़खड़ाते ही नहीं थे, बल्कि शराब की बोतल उनके हाथ में भी थी। एक हाथ में शराब की बोलत और दूसरे में वेश्या। जब वह काशी के बाजारों में से निकले तो उनसे ईर्ष्या करने वालों को उनकी जी भरकर निन्दा करने का मौका मिल गया। पहले ने कहा: देख लिया ! यह जुलाहा जो बड़ा बना फिरता था। दूसरा बोला: नीच जात है ! पहले छिपकर ऐब करता था अब शराब के नशे ने पोल खोल दी है। तीसरे ने कहा: अरे भाई ! मैं तो पहले ही कहता था कि यह जुलाहा ठग है और अब देख लो इसकी ठगी और बदमाशी नँगी होकर सँसार के सामने आ गई। नीचों से बहतरी की आस रखना मूर्खता है। अपनी बोदी पर वट चड़ाते हुए एक ब्राह्मण ने कहा: अरे भाई ! कभी किसी ने शुद्र को भी भक्त के रूप में देखा है। यह सब तो चण्डाल ही होते हैं। एक आदमी ने कहा: अरे भाई ! कबीर जी इस प्रकार के नहीं हैं। जरूर कोई भेद है। इस प्रकार बहुत निन्दा हो रही थी। परन्तु भक्त कबीर जी अपनी मस्त चाल से लड़खड़ाते हुए साथ में कँजरी को लेकर राजदरबार की तरफ जा रहे थे, उस राज्य के दरबार की तरफ जो उन्हें गुरू मानकर पूजता था। परन्तु राज दरबार में पहुँचने से पहले ही उनकी निन्दा वहाँ पर पहुँचकर राजा के दिल को उनके प्रति मैला कर चुकी थी। राजदरबार के रास्ते पर कबीर जी धीरे-धीरे इस शब्द का उच्चारण कर रहे थे, उनके चेहरे पर अब एक व्यँग्य भरी हँसी थी:

निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥ निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥
निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ ॥
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥ नामु पदार्थु मनहि बसाईऐ ॥
रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥ हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
निंदा करै सु हमरा मीतु ॥ निंदक माहि हमारा चीतु ॥
निंदकु सो जो निंदा होरै ॥ हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥ निंदा हमरा करै उधारु ॥
जन कबीर कउ निंदा सारु ॥ निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥ अंग 339

अर्थ: हे भक्त जनों, जो लोग मेरी निंदा करते हैं, उनको निंदा करने दो, मुझे निंदा बहुत प्यारी है, निंदा माँ-बाप के समान होती है, क्योंकि जिसकी निंदा होती है उसकी मैल धोई जा सकती है, आप कोई भी चिंता न करो। ब्राहम्णों को अपनी मर्जी करने दो। जितनी मेरी निंदा होगी, उतने ही मेरे पाप झड़ेंगे, मेरा असली मित्र वो ही है, जो मेरी निंदा करता है, निंदक भवसागर में डुब जाएगा और शायद मैं पार हो जाऊँगा। इस शब्द का उच्चारण राजदरबार के बाहर की समाप्त हो गया और फिर पहले ड्रामे के हीरो की तरह शराब और कँजरी के साथ दरबार में दाखिल हुए। उन्हें इस हालत में देखकर सब हैरान हुए। कोई भी इस ड्रामे को नहीं समझ सका, कोई भी यह नहीं जान सकता था की उस बोतल में शराब नहीं थी बल्कि गँगा जल था। सभी लोग कबीर जी की तरफ नफरत से देखने लगे, जो उन्हें गुरू मानते थे और राजा भी उन्हें नफरत से देखने लगा।

राजा जोर से चिल्लाकर बोला: कबीर ! ये क्या हिमाकत है ? कबीर जी शराबियों की तरह हँसकर बोले: महाराज जी ! अच्छी तरह आँखें खोलकर देख लो, कबीर भक्त के इस नये रँग को। फिर कोई कुछ नहीं बोला, सारे तमाशा देखते रहे। आखिर में कबीर जी ने एक नई हरकत की। राज दरबार में बिछे हुए एक सुन्दर कालीन पर शराब की बोतल उलटा दी।  कालीन खराब होते देखकर राजा क्रोध में आ गया, उसने कड़कती आवाज में कहा: कबीर ! तुम्हे आज हो क्या गया है, इस सुन्दर कालीन का सत्यानाश क्यों कर दिया है ? कबीर जी ने कहा: महाराज ! जगतनाथ के मन्दिर को आग लग चली थी, वह बुझाई है। और बिना कोई उत्तर दिये तेजी के साथ दरबार में से निकल गए। कबीर जी तो निकल गए पर राजा बूरी तरह पेरशान हो गया। उसने महसूस किया कि कोई बहुत बड़ी भूल हुई है, जिसकी माफी आसानी से नहीं मिलेगी। वह उठा और कालीन के पास गया पर वहाँ पर तो शराब की बदबू आ ही नहीं रही थी। उसे निश्चय हो गया कि कबीर जी कोई लीला करके हमें अपनी परीक्षा में फैल कर गए हैं। इसके साथ ही राजा को कबीर जी की जगतनाथ के मन्दिर की आग बुझाने की बात याद आई। उसने एक तेज घुड़सवार को जगतनाथ की तरफ पता करने भेजा कि वह सारी बात का जल्दी से जल्दी पता करके वापिस आ जाए। राजा ने यह बात रानी को भी बताई। रानी ने कहा: मेरे सरताज ! कोई बात नहीं, हम गुरू जी (कबीर जी) के पास चलते हैं और उसने क्षमा माँगते हैं। वह माफ कर देंगे। मैं भी आपके साथ चलती हूँ। राजा ने कहा: रानी जी ! मैने एक घुड़सवार को जगतनाथ भेजा है, पहले वह आ जाए तो यह पता लग जाए कि जगतनाथ के मन्दिर को आग लगने वाली बात कहाँ तक ठीक होती है। रानी ने कहा: मेरे सरताज ! आपकी श्रद्धा अभी भी डोल रही है। इसे दृढ़ करो। मुझे निश्चय है कि गुरूदेव की बात आखिर ठीक होगी। इस प्रकार की बातें करते हुए राजा और रानी बिना खाना खाए ही सो गए।

सुबह उठे तो घुड़सवार आ चुका था। उसने आग लगने की बात ठीक बताई कि जिस समय कबीर जी ने कालीन पर बोतल उलटी की थी, उसी समय जगतनाथ मन्दिर में पूजा के बाद आग का सेंक पूजारी के पैरों पर लगा था, परन्तु कहीं से पानी की बौछार आ जाने से वह आग बुझ गई थी। घूड़सवार ने यह भी बताया कि पूजारी जी बताते हैं कि पास ही ऐसी सामाग्री पड़ी थी कि अगर आग की एक भी लपट या चिंगारी भी उस तरफ चली जाती तो उसने भड़क जाना था और सारा का सारा मन्दिर ही जलकर स्वाह हो जाना था। परमात्मा ने आप ही इस मन्दिर को बचाया है। घुड़सवार की बातें सुनकर राजा को पूरा यकीन हो गया कि कबीर जी उसकी परीक्षा लेने ही आए थे, जिसमें वह फैल हो गया और उसकी आँखों में पश्चात्ताप के आँसू आ गए। रानी ने जब उसकी यह हालत देखी तो उसने कहा कि चलो गुरू जी (कबीर जी) के पास चलते हैं और भूल की माफी माँग लेते हैं। हमने ऐसा पाप तो किया नहीं है कि जो बक्शा न जा सके। जब वह कबीर जी के पास पहुँचे तो कबीर जी संगतों में बीच में बैठे हुए उनको उपदेश दे रहे थे। कबीर जी ने जब राजा की दयनीय दशा देखी, राजा और रानी दोनों ने मूँह में घास और गले में पल्ले बाँधे हुए थे, तो वह उठकर आगे आए तो राजा ने उनके चरण पकड़ने चाहे पर कबीर जी ने उन्हें गले से लगा लिया। रानी ने कहा हमारी भूल को क्षमा कर दिजिए। यह कल से ही बड़े पेरशान हैं और पश्चात्ताप कर रहे हैं। कबीर जी ने राजा-रानी, वजीरों और अमीरों को सत्कार के साथ सबसे आगे बिठाया, अपने हाथों से राजा और रानी के मूँह में से घास और गले में से पल्ले निकाल दिए और कहा– यह खेल तो हमने इस प्रकार से रचाया हुआ था कि कोई भी धोखा खा सकता था। आपकी कोई गलती नहीं है। यदि फिर भी माफी चाहते हो तो हम खुशी के साथ देते हैं। कबीर जी ने कहा कि यह ठीक है कि मन पत्ते की तरह है, जिधर हवा का झौका आया उधर ही उड़ गया, परन्तु अगर इसको श्रद्धा के साथ बाँध दिया जाए तो यह कभी भी नहीं डोलता। अब राजा जो तृप्त हो चुका था। उसने खुले हाथों से भक्त कबीर जी को माया भेंट की और जय-जयकार करता हुआ वापिस अपने महलों में आ गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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