26. कबीर जी का समाज सुधार
कबीर जी इतने बड़े समाज सुधारक थे कि और तो और अपने गुरू रामानँद जी का भी लिहाज नहीं
करते थे। श्री रामानँद जी अपने गुरू का श्राद्ध साल के साल जरूर किया करते थे। एक
बार उन्होंने श्राद्ध करने का फैसला किया तो सारे चेलों को आज्ञा दी कि आसपास के
गाँवों में जाकर दुध ले आओ। आज्ञा पाकर सब चेले गाँवों की और चल दिए और कबीर जी को
भी जाना पड़ा। परन्तु वह किसी गाँव में नहीं गये। डेरे से थोड़ी दूर पर एक गाय मरी पड़ी
थी। कबीर जी ने उसका मुर्दा उठाकर एक पेड़ से साथ खड़ा किया और नीचे कमण्डल रखकर दुध
निकालने का यत्न करने लगे। बाकी के चेले दुध लेकर वापिस आ गए पर कबीर जी अपने उसी
कार्य में मग्न थे। एक सेवक ने आकर खबर की कि कबीर जी मूर्दा गाय के थनों से दुध
निकालने का यत्न कर रहे हैं। श्री रामानँद जी सभी चेलों को लेकर वहाँ पर पहुँचे और
कबीर जी से पूछा: कबीर! क्या कर रहे हो ? कबीर जी ने जवाब दिया: गुरूदेव ! आपके
आदेश अनुसार दुध ले रहा हूँ। श्री रामानंद जी ने कहा– भला कभी मूर्दा गाय भी दुध
देती हैं ? कबीर जी: गुरूदेव जी ! जब हमारे पित्तर खीर खा सकते हैं तो फिर यह मर
हुई गाय दुध क्यों नहीं दे सकती। यह एक जबरदस्त व्यँग्य था जो उन्होंने एक चेला होते
हुए भी अपने गुरू पर किया था। इसका तात्पर्य यह है कि जो मर जाते हैं, हम उनका
श्राद्ध क्यों करते हैं, जबकि वो तो मर चुके हैं, यह सब बकवास के फोकट कर्म हैं,
जिनसे केवल समय और पैसा नष्ट होता है। कबीर जी ने बाणी कही:
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥
कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥
ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥
राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रह्मु नही जाना ॥
कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥ अंग 332
ऊँच-नीच और जात-पात का भी कबीर जी ने बड़े व्यँग्य भरे शब्दों
में खण्डन किया है। जात अभिमानी ब्राह्मण को सम्बोधित करते हुए कहते हैं:
गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
ब्रह्म बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥॥४॥७॥ अंग 324
हे जाति अभिमानी ब्राहम्ण ! तूँ जरा सोच कि माँ के पेट में जब
भगवान ने तुझे जान और तन दिया था उस समय कभी सोचा कि तूँ ब्राहम्ण था या कोई ओर जाति
का। जब ब्रहमा ने सृस्टि की उतपति की तब किसे पहले रचा था। भला यह बता सकता है कि
ब्राहम्ण और पण्डित कब के हुए हैं। ऐसे ही झूठा हल्ला मचा-मचाकर अपने जनम को व्यर्थ
गवाँ रहा है। अगर तेरी बात मान भी लें कि तूँ बहुत अच्छा है और भगवान को बहुत प्यारा
है तो:
जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥
तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥
हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥ अंग 324
जब ब्राहम्णी ने तुझे जन्म दिया था तो तूँ उस रास्ते से क्यों
आया या जन्म लिया जिस रास्ते से आम लोग आते हैं। शुद्र, क्षत्रीय, और वैश्य ! क्या
अन्तर हुआ तेरे और आम लोगों में। ना तूँ ब्राहम्ण है और न मैं शूद्र हूँ। जो मेरे
अन्दर खून है वह तेरे भी अन्दर है। तेरे अन्दर कोई दुध नहीं है। तन करके सारे
मनुष्य एक समान हैं। ऐसे ही भ्रम नहीं करना चाहिए।
कहु कबीर जो ब्रह्मु बीचारै ॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै अंग 324
ब्राहम्ण वह है जो ब्रहम परमात्मा के ज्ञान और आत्मा की होंद (अस्तित्व)
और उसके निशाने को जानता है। जन्म करके कोई ब्राहम्ण नहीं हो सकता। कबीर जी के समय
की खराब रस्मों और रिवाजों पर और कर्मकाण्ड का खण्डन भी उन्होंने व्यँग्यमयी बाणी
के माध्यम से किया है:
नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥ बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥
किआ नागे किआ बाधे चाम ॥ जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥
मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥ मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥
बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥ खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥ राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥ अंग 324
भाव यह है कि जब आत्मा, परमात्मा के चरणों में नहीं जुड़ी तो ऐसे
स्वाँग रचने का क्या लाभ है, नँगे रहने से जोग नहीं मिलता, बल्कि राम नाम की अराधना
से ही मिलता है।