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25. तीर्थ यात्रा पाखण्ड का खण्डन

हिरदै कपटु मुख गिआनी ।। झूठे कहा बिलोअसि पानी ।। अंग 656

कबीर जी ने इस शब्द में तीर्थ स्नान करने के पाखण्ड का भी खण्डन किया है, वह कहते हैं कि तूम्बड़ी (एक प्रकार का कड़वा फल) गँगा के जल से भी धोई जाए तो भी कड़वी ही रहेगी, मीठी नहीं हो सकती। (नोट– यह तूम्बड़ी वाली कथा गुरू अमरदास जी के इतिहास में भी आई है)। पापों की मैल भी शरीर के स्नान से नहीं धूलेगी, भवसागर से पार तो बस यह मेरा राम ही कर सकता है, इसलिए हे प्राणी ! पाखण्ड जाल में ना फँसकर राम जी का नाम ले। कबीर जी के यह विचार बड़े ही ज्ञानपूर्ण हैं। किन्तु पाखण्डी लोग इनका खण्डन करते रहते हैं और तीर्थ यात्रा का ही उपदेश देते रहते हैं। एक बार कबीर जी के पास एक साधू आया, जो अपने आपको भगवान का बड़ा भक्त प्रकट करता था, उसने कबीर जी पर अपने बड़प्पन का गौरव डालने के लिए उनको झाड़ने लगा। उसने कहना शुरू कर दिया: कबीर जी ! लोग आपको भक्त कहते हैं, परन्तु आप अजीब भक्त हो, ना तो किसी तीर्थ पर जाते हो, नाही कभी गँगा का स्नान करने जाते हो और नाही धर्म के ओर सँस्कार करते हो। यह बताओ कि आपको लोग भक्त क्यों कहने लग गए हैं ? अगर आप सचमुच ही भक्त हो तो मेरे साथ तीर्थों पर चलो। फिर देखना कि तुम्हारे ज्ञान में कितनी बढ़ोत्तरी होती है। कितनी शान्ति मिलती है और कितना नाम होता है तुम्हारा। कबीर जी हँसकर बोले: महात्मा जी ! मैं गरीब जुलाहा इन बातों को क्या जानूँ, परन्तु सन्त जनों की यह बाणी भी तो झूठी नहीं कि तम्बूड़ी धोने से भी मीठी नहीं हो सकती और गँगा के स्नान से पापों की मैल नहीं काटी जा सकती। यह भी सुना है कि बहुत ज्यादा तीर्थ यात्रा दिखावे की निशानी होती है और उसके अन्दर ठगी की निशानी होती है।वह साधू गुस्से में बोलने लगा: कबीर जी ! आपको तीर्थ यात्रा करने वालों को पाखण्डी और ठग कहने का कोई हक नहीं, आपने यह बोलकर पाप किया है, इसका पश्चात्ताप करो, इसलिए माफी माँगो। कबीर जी ने हँसकर कहा कि: महात्मा जी ! गुस्से क्यों होते हो, यहाँ पर रूको, विचार करेंगे और जिसकी गलती होगी वह पश्चात्ताप भी करेगा और माफी भी माँगेगा। कबीर जी ने अपने पुत्र कमाला से कहा: पुत्र ! जाओ और महात्मा जी के लिए पक्के पकवान, मिठाई आदि ले आओ। कमाला जी ने ऐसा ही किया। महात्मा जी ने मिठाई आदि पर खूब हाथ साफ किया। उसके बाद कबीर जी ने उस साधू को आराम करने के लिए अपनी कूटिया में भेज दिया। संगत में से साधू संबंधी अच्छी चर्चा छिड़ गई। कोई कहता कि बहुत पहुँचा हुआ संत है जो कबीर जैसे भक्त को भी झाड़ गया। कोई कहता कि ठीक ही कहता है कि तीर्थ यात्रा करनी ही चाहिए। कबीर जी के पास ऐसी बातें पहुँची तो उन्होंने कहा:

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना देखा कोइ ।।
जो दिल खोजा आपुना, मुझ से बुरा न कोइ ।।

कबीर जी ने कहा कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।

वह साधू कई दिनों तक कबीर जी के पास रहा और उनको तीर्थ यात्रा के लिए प्रेरणा देता रहा और अच्छा खाना खाता रहा फिर एक दिन अचानक जाने के लिए तैयार हो गया। वह संगत में आकर कबीर जी से कहने लगा: भक्त जी ! हम तेरी तरह सुस्त बनकर नहीं बैठ सकते, अगर तुम्हारी आत्मा नहीं मानती तो हम तुझे मजबूर नहीं करते, परन्तु हम तीर्थ यात्रा के लिए जा रहे हैं। कबीर जी ने हँसकर कहा: सत्य बचन महाराज ! महात्मा बोले: कबीर जी ! हम हरिद्वार जा रहे हैं। अगर आत्मा माने तो वहाँ पर आकर देखना कि तीर्थ यात्रा से मन की किस प्रकार शुद्धी होती है। यह कहकर महाराज की जाने लगे। परन्तु कबीर जी ने उन्हें रोककर कहा: इस प्रकार मत जाओ ! रास्ते में खर्च के लिए कुछ साथ लेकर जाओ और पुत्र कमाला से कहा कि जाओ, मेरी कूटिया से रूपयों वाली वासनी उठाकर ले आ। यह बात सुनकर महात्मा जी का मुँह सफेद हो गया, परन्तु कबीर जी के अलावा इस बात को किसी ने नहीं देखा। थोड़ी देर के बाद ही कमाला जी वापिस आ गए पर खाली हाथ। कबीर जी ने उसकी तरफ देखा, मुस्कराऐ और कहने लगे: पुत्र ! तूझे वहाँ पर जाने की ऐसे की मेहनत करनी पड़ी, वासनी तो संत महाराज ने कमर से बाँधने का कष्ट उठाया हुआ है। आगे आकर महात्मा के भार का हल्का करो और जितनी रकम इन्हें चाहिए वह दे दो। कमाला जी ने जब महात्मा का चोला ऊपर करके उठाया तो कमर के साथ बँधी हुई रूपयों की वासनी सारी संगत ने देख ली। कमाला जी ने वह उतारकर कबीर जी के आगे रख दी। कबीर जी ने उसमें से सारे रूपये निकालकर ढेरी बना दी और महात्मा जी से कहा कि जितने आपको चाहिए ले लो। अब महात्मा जी पानी-पानी हो गए। कबीर जी हँसकर बोले: महात्मा जी ! आप जितने रूपये लेना चाहो, ले सकते हो, मैंने तीर्थ यात्रियों को ठग कहा था, उसके लिए क्षमा चाहता हूँ। कबीर जी का यह व्यँग्य उस साधू को पूरा ही मार गया। वह महात्मा कबीर जी के चरणों में आ गया और बोला: हे सच्चे पातशाह ! मैं गनाहगार हूँ, पापी हूँ, पाखण्डी हूँ, चोर हूँ, ठग हूँ, मूझे बक्श लो और सीधी राह दिखाओ। कबीर जी ने हँसकर कहा कि: महाराज ! यह चोरी, पाखण्ड और ठगी छोड़ दे, जिसके लिए तूँ तीर्थ यात्रा पर चक्कर काटता फिर रहा है। सच्चे दिल से राम नाम का जाप कर और बुरे कामों का त्याग करके नेकी के काम करना सीख। वह सत्य बचन कह कर चला गया। संगत ने इस प्रसँग को देख भी लिया था और उससे सीख भी ले ली थी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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