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22. गृहस्थ सुख के लिए रोशनी

कबीर जी एक पहुँचे हुए संत, भक्त और ब्रहम ज्ञानी थे, परन्तु गृहस्थ धर्म पर भी उनका पूर्ण भरोसा था। वह जानते थे कि प्रभु की प्राप्ति धरबार छोड़कर जाने से नहीं होती, समाधियाँ लगा लेने से और भूखे रहने से नहीं होती बल्कि गृहस्थ धर्म की पालना करते हुए ही सच्चे दिल से राम नाम जपने से ही हो जाती है। वह कहते थे कि इन्सान एक अच्छा गृहस्थी बन जाए तो उसे किसी भी प्रकार का घाटा नहीं होता। एक बार कबीर जी जँगल में से जा रहे थे। उनका पुत्र कमाला जी भी साथ थे। तभी उन्हें एक आदमी के कराहने की आवाज सुनाई दी। पास में जाकर देखा तो एक जवान साधू अपनी कूटिया में बुखार के कारण तड़प रहा है। कबीर जी और उसका पुत्र कमाला जी उसे उठाकर अपने घर पर ले आए और उसकी सेवा की और इलाज किया तो वह 5-7 दिन में ही भला-चँगा हो गया। कबीर जी ने साधू से पूछा: संत महाराज जी ! आपके प्रभु ने बीमारी में आपकी सहायता क्यों नहीं की ? वह साधू नम्रता से बोला: मेरे प्रभु ने ही तो आपको भेजा होगा। कबीर जी ने कहा: आपकी बात ठीक है, राम ने ही मुझे आपके पास भेजा था। राम ने इन्सान को ही इन्सान के रोग का इलाज बनाया है। किन्तु इन्सान असल इलाज अपना भी कर सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर इन्सान गृहस्थ में रहे तो बीमारी या अन्य परेशानी में उसकी पत्नी, पुत्र व पुत्री और अन्य लोग आपकी सहायता के लिए मौजूद होते हैं। यह सुनकर उस साधू की आँखें खूल गई और उसने पाखण्ड भरा जीवन छोड़कर गृहस्थ जीवन अपना लिया। कबीर जी और लोई जी एक आदर्श पती-पत्नी थे। वो एक-दूसरे के लिए जान झिड़कते थे। इसलिए उनका गृहस्थ जीवन बहुत ही सुखी था। एक दिन उनका एक सेवक उनके पास आया और कहने लगा: महाराज जी !  हमारा परिवारिक जीवन बहुत दुखी है, इसको सुखी बनाने का उपाय बताओ ? कबीर जी ने कहा: भाई ! इस प्रकार से परेशान होने से क्या होगा। आप कल दोपहर को अपनी पत्नी सहित आ जाना।

अगले दिन वह सेवक अपनी पत्नी समेत ठीक दोपहर को आ गया। इस समय कबीर जी मिट्टी में पानी डालकर उसे आटे की तरह गूँथ रहे थे। उनके आने पर कबीर जी ने लोई को आवाज मारी। वो आकर पूछने लगी: स्वामी जी ! बताओ दासी के लिए क्या हुक्म है ? कबीर जी: लोई जी ! कुछ घी ले आओ, इसमें डालना है। सतबचन कह कर माता लोई जी अन्दर चली गई और घी का बर्तन लाकर कबीर जी के सामने रख दिया। कबीर जी ने पुत्र का आवाज मारकर कहा: कमाल ! मैंने मिट्टी गूँथ ली है, रोटियाँ पकानी है, बालन (आग) लेकर आ जाओ। कमाला जी बालन लेकर आ गये तो कबीर जी ने अपनी पुत्री कमाली को तुरन्त बाहर आने के लिए आवाज मारी, वो भी आज्ञा का पालन करते हुए तुरन्त बाहर आ गई। फिर कबीर जी ने अपनी पत्नी लोई जी को आवाज दी कि तँदूर तप गया है और रोटियाँ बना लो और इस सेवक और इसकी पत्नी को खिलाओ। इस बार जब उस सेवक और उसकी पत्नी ने आटे की तरफ देखा तो वह मक्खन की तरह सफेद था, जिसे देखकर उनकी हैरानी की कोई सीमा नहीं रही, क्योंकि कबीर जी तो मिट्टी गूँथ रहे थे। लोई जी ने रोटियाँ बनाकर उनको प्रेम से खिलाईं। जितना स्वाद उनको इन रोटियों में आया, इससे पहले इतना स्वाद नहीं आया था। कबीर जी ने कहा: यह सब घर वालों की एकता की बरकत है। आपने मिट्टी से आटा बनता हुआ भी देखा है। घर-गृहस्थी की एकता से इसी प्रकार से मिट्टी से सोना बन जाता है। यही कूँजी है गृहस्थ जीवन की सफलता और सुख की। एक-दूसरे पर पूर्ण भरोसा करके कहा मानो। प्यार और सत्कार से रहो। एक दूसरे पर भरोसा रखने से घर स्वर्ग की तरह हो जाएगा। और साथ ही साथ यदि राम नाम भी जपा जाए तो सोने पे सुहागा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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