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7. कबीर जी का प्रकट होना

कबीर जी ने घर पहुँचकर अपने कपड़े भगवा रँग लिए और गले में रूद्राक्ष की माला पहन ली और हाथ में खड़तालें पकड़ लीं। घर और बाहर के लोग हैरान हो गए। माता-पिता जी ने हाथ जोड़कर कहा: पुत्र ! राम भक्ति कर, परन्तु साधु बनकर हमारी आखों से दूर ना हो ! साधूओं का कोई टिकाना नहीं होता। जिधर मौज आई उधर ही निकल गए। तूँ हमारी आँखो का तारा है, हम नहीं चाहते कि तूँ हमारी आँखो से दूर हो और घर से चला जाए। तेरा विवाह भी तो करना है और गृहस्थी का भार भी तुझे ही उठाना है। कबीर जी ने बड़े घीरज से उत्तर दिया: माँ ! पिता जी ! चिंता नहीं करो। मैंने राम का आसरा लिया है। राम भली करेगा। राम की सब रचना है, वो सब जीवों की चिन्ता करता है। वो जैसे हुक्म करता है, मैं वैसे ही चलता हूँ। मैं घर ही रहूँगा। मैंने केवल यह भगवा भेश धारण किया है। जात अभिमानी पण्डित परमात्मा के घर को अपना समझते हैं। गरीबों को परमात्मा के द्वारे जाने से रोकते हैं। मुझे चार वर्ण, छूत-अछूत, ऊँच-नीच आदि के पाखण्डों को दूर करना है। यह सुनकर माता-पिता और भी डर गये, उन्हें डर था कि जुलाहे की जाति तो कुदरती नीची मानी जाती है और उन्हें डर था कि ब्राहम्ण, मौलवी और राज के आदमी उनका घर लूटने आ जाएँगे और मारने कूटने आ जाएँगे। उन्होंने कबीर जी से कहा: ना बेटा ! ऐसी बात नहीं करनी, यह काशी नगरी है। यहाँ पर पण्डितों का जोर है। कबीर जी ने किसी की एक नहीं सुनी, वह खड़तालें बजाते हुए और भजन गाते हुए बाहर की तरफ चल पड़े। लोग भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। साधूओं, ब्राहम्णों, जोगीयों, जागीरदारों और मस्जिदों के काजीओं ने देखा कि एक नीची जाति के जुलाहे नीरो का बेटा कबीर सचमुच ही कबीर (बड़ा) बन गया है। वह भक्त बनकर काशी की गलियों में राम धुन गाता जा रहा है। वह मन्दिरों, आश्रमों ओर पाठशालाओं के आगे से भी निकले। गँगा किनारे गए। सारा दिन फिरते रहे। शहर के हर घर में चर्चा होने लगी। किसी ने अच्छा कहा, किसी ने बूरा। बड़े-बड़े भक्त और ब्राहम्ण एक दूसरे से पूछने लगे: क्यों ! कबीर जी का गुरू कौन है ? किसने इस मलेछ को शिक्षा दी या फिर निगुरा ही फिर रहा है ? इन सवालों को उत्तर किसी को भी नहीं मिला। रात बीत गई। अगला दिन चड़ा। कबीर जी फिर उसी प्रकार घर से बाहर निकल पड़े। रास्ते में साधूओं ने रोक कर पूछा: कबीर ! तेरा गुरू कौन है ? कबीर जी ने कहा: महाश्य जी ! मेरा गुरू, स्वामी रामानँद गोसाँईं। उत्तर सुनकर सभी चौंक गये। स्वामी रामानँद जी कबीर जी के गुरू हैं, यह बात पूरी काशी में जँगल की आग की तरह फैल गई। बस फिर क्या था, कई जाति का अभिमान करने वाले सारे बन्दे स्वामी जी के पास गए और बोले: महाराज ! ये आपने क्या किया एक नीची जाति वाले जुलाहे कबीर को दीक्षा दे दी।

स्वामी जी यह सुनकर कर सोच में पढ़ गये कि उन्होंने कबीर जी को कब दीक्षा दी। उन्हें कुछ भी याद नहीं आया। वो बहुत की प्रेममयी बाणी में बोले: हे भक्त जनों मैंने किसी कबीर को धर्म-दीक्षा नहीं दी। पता नहीं भगवान की माया क्या है ? मेरा राम ही जाने ? साधू क्रोधवान होकर बोले: तो क्या कबीर लोगों से झूठ कह रहा है। तब स्वामी रामानँद जी ने उत्तर दिया: कि कबीर जी को यहीं ले आओ, वो ही सारा भेद ब्यान कर देंगे। सभी बोले: जरूर ही कबीर जी को यहाँ बुलाना चाहिए, सारे शहर में बहुत चर्चा है। स्वामी जी ने अँत में बोला: ले आओ ! वो सभी गए और एक घण्टे के भीतर ही उन्हें अपने साथ ले आए। कबीर जी अपने गुरू के पास जाते हुए बहुत ही खुश थे, वो सोच रहे थे कि इस प्रकार उन्हें अपने गुरू जी के खुले दर्शन हो जायेंगे। कबीर जी को पकड़ा हुआ देखकर लोग एकत्रित हो गए। सभी श्रद्धालू पीछे-पीछे चल पड़े। कुछ लोग तो वो थे जो केवल तमाशा देखने आए हुए थे। स्वामी जी के आश्रम में कबीर जी पहुँच गए। आश्रम में बहुत रौनक थी उनके सारे चेले और शहरवासी आए हुए थे। जो कबीर जी के साथ आए थे वो भी एक तरफ होकर बैठ गए। कबीर जी ने स्वामी जी को जाते ही माथा टेका और उनके सामने जाकर खड़े हो गये। स्वामी रामानँद जी ने कबीर जी से पहला सवाल किया: हे राम भक्त ! तेरा गुरू कौन है ? कबीर जी ने आनँदमग्न चेहरे से उत्तर दिया: मेरे गुरू ! स्वामी रामानँद जी। यह सुनकर सभी हैरान हुये। पण्डितों और साधूओं के चेहरे पर गुस्सा आया, पर बोल कुछ ना सके। स्वामी रामानँद जी: मैंने तो तुम्हें कभी दीक्षा नहीं दी। कबीर जी हाथ जोड़कर नम्रता से बोले: गुरूदेव ! यह सही है कि आपने मुझे चेलों में बिठकार दीक्षा नहीं दी और ना ही दे सकते थे, क्योंकि इसकी आज्ञा ब्राहम्ण और साधू समाज कभी भी नहीं देता। फिर भी मैं आपका चेला बन गया। राम जी ने सँजोग लिखा था। स्वामी रामानँद जी: वो कैसे ? कबीर जी: मैंने नीच जाति में जन्म लिया। जाति नीच है या उत्तम उसका पूरा पता जाति का रचनहार परमात्मा जाने, पर मुझे राम भजन करने की लग्न जन्म से ही है। मैं राम नाम का सिमरन करता था परन्तु मुझे बताया गया था कि गुरू के बिना गती नहीं हो सकती। गुरू धारण करना जरूरी है पर काशी नगरी मैं मुझे कोई भी अपना चेला बनाने को तैयार नहीं हुआ था। मैंने आखिर में गँगा की सीढ़ियों लेट गया और आपके चरणों की धूल प्राप्त की। आपने कहा– उठो राम कहो ! मैं राम कहने लग गया। बस यही है मेरे गुरू धारण करने की कथा।

ब्रहमज्ञानी, दिव्यदृष्टिमान स्वामी रामानँद जी, ब्रहम विद्या के बल पर सब कुछ जान गए। उन्होंने कबीर जी की आँखो में तीन लोक देखे। परमात्मा की माया देखी। वह विस्माद में गुम हो गए। आत्मिक जीवन के जिस पड़ाव पर कबीर जी पहुँचे थे, वहाँ पर कोई तिलकधारी पण्डित नहीं पहुँच सकता। पाखण्डी साधू और ब्राहम्ण, जात अभिमान के कारण नरक जीवन भोगने के भागी थे। ये पण्डित ईर्ष्या, निंदा और बड़े-छोटे, नीच-ऊँच आदि के खेल में उलझे रहते थे। राम सिमरन का ज्ञान उनको जरूर था पर वह व्यवहारिक तौर पर नहीं था और उसे अमल में नहीं लाते थे। स्वामी रामानँद जी मस्त होकर कहने लगे: कबीर मेरा बेटा है ! मेरा चेला है ! इसमें और राम में कोई भेद नहीं। मैं खुश हूँ ऐसे चेले को पाकर। बस मेरे जीवन की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो गईं। स्वामी रामानंद जी की बात सुनकर सभी पण्डित, स्वर्ण जाति के, साधू और चौधरी छटपटाने लगे, पर कर कुछ नहीं सके, क्योंकि वह सब स्वामी रामानँद जी की आत्मिक शक्ति को जानते थे। स्वामी रामानंद जी ने कबीर जी से कहा: ओ राम के कबीरे ! जाओ राम कहो ! तेरा राम राखा। कबीर जी खुश हो गये। वो आलोकिक आनँद से कुदने लगे। उन्होंने तुरन्त भागकर स्वामी जी के चरणों में अपना माथा टेका। सभी लोग हैरान थे। कबीर जी उठे और राम भजन गाते हुये आश्रम से बाहर की तरफ चले गये। उनके पीछे-पीछे उनकी बिरादरी के लोग और श्रद्धालू भी चल पड़े।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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