6. स्वामी रामानंद जी को गुरू बनाना
उस समय बनारस में बहुत सारे भक्त थे पर सबसे प्रसिद्ध भक्त गुरू स्वामी रामानँद जी
थे। इनकी शोभा, भक्ति और विद्यवता बनारस के बाहर भी सुगँधी की तरह बिखरी हुई थी।
इनके सैंकड़ों चेले थे। बहुत विद्या का प्रचार होता था। वो हमेशा एक ही शब्द कहते
थे– बेटा राम कहो। कबीर जी को कपड़े बुनना अब अच्छा नहीं लग रहा था। वो साधू बिरती
वाले हो गये थे। वो रात दिन गुरू जी तलाश करने लगे। गुरू धारण किए बिना वो साधू
समाज में नहीं बैठ सकते थे। वो कई भक्तों के पास और साधू मण्डलियों में गए पर किसी
ने हाँ नहीं की। इन्सान को इन्सान नहीं समझा जाता था। चार वर्ण के कारण तिरस्कार ही मिलता था। हर कोई कहता कि तेरा जन्म मुस्लमान और नीच जाति के घर हुआ है। तूँ दीक्षा
प्राप्त करने का अधिकारी नहीं। यह सुनकर कबीर जी निराश होकर वापिस आ जाते। राम नाम
ही उनके लिए एक भरोसा था। स्वामी रामानँद जी अमृत समय (ब्रहम समय) में गँगा स्नान
को जाया करते थे। जब वह स्नान करके बाहर निकलते थे तो आसमान पर तारे टिमटिमाते होते
थे। गँगा स्नान उनके लिए जरूरी कर्म था। कबीर जी को एक विचार आया कि क्यों न वह उस
रास्ते पर लेट जाया करें जिस रास्ते पर स्वामी रामानँद जी स्नान करके निकलते हैं ?
कभी न कभी जरूर उनके चरणों की धूल प्राप्त हो जाएगी। उपरोक्त विचार से आत्मिक खुराक
को खोजने के लिए गुरू धारण करने की लग्न के साथ कबीर जी तड़के ही गँगा किनारे जाने
लगे। जिस रास्ते पर रामानँद जी निकलते थे। उस रास्ते पर गँगा की सीड़ियों पर लेटने
लगे। कई दिन तक लेटते रहे पर मेल नहीं हुआ। किन्तु सब्र, सन्तोष की महान शक्ति होती
है। जो सब्र के साथ किसी कार्य को करते हैं वह सम्पूर्ण होता है। कबीर जी का सब्र
देखकर एक दिन परमात्मा ने कृपा दृष्टि कर दी और स्वामी रामानँद जी के चरणों को उस
और मोड़ दिया जिस तरफ कबीर जी लेटे हुए थे और दिल में राम नाम का जाप कर रहे थे।
स्वामी जी भी राम नाम का सिमरन करते हुए लेटे हुए कबीर जी के शरीर से टकराए। स्वामी
जी ने बचन किया: उठो ! राम कहो ! यह सुनकर कबीर जी ने उनके चरणों पर अपना माथा रख
दिया और काँपते हाथों से उनके चरण पकड़ लिए। स्वामी जी ने झुककर उन्हें कन्धों से
पकड़कर कहा: उठो बेटा ! राम कहो। कबीर जी निहाल हो गये। स्वामी जी आगे चल पड़े और उनके
पीछे-पीछे राम नाम का सिमरन करते हुए कबीर जी भी अपने घर आ गए। उनके दिल का कमल खिल
गया था और चेहरे पर निराली चमक आ गई थी। ऐसा नूर जो तपते हुए दिलों को शान्त करने
वाला, मूर्दों को जीवन दान देने वाला और भटके जीवों को भव सागर से तारने वाला था।
उपरोक्त घटना को भाई गुरदास जी ने इस प्रकार ब्यान किया है:
होइ बिरकतु बनारसी रहिंदा रामानंदु गुसाईं ।।
अंमृतु वेले उठि कै जांदा गँगा नाहवण ताईं ।।
अगे ही ऐ जाइ कै लंमा पिआ कबीर तिथाईं ।।
पैरी टुंब उठालिआ बोलहन राम सिख समझाई ।।
जिउ लोहा पारसु छुहे चंदन वासु निंमु महिकाई ।।
पसू परेतहु देअ कहि पूरे सतिगुरू दी वडिआई ।।
अचरज नो अचरज मिले विसमादै विसमादु मिलाई ।।
झरणा झरदा निबरहु गुरमुखि बाणी अघड़ घड़ाई ।।
राम कबीरै भेदु न भाई ।। 15 ।। (वार 10)
उपरोक्त बाणी का भाव स्पष्ट है। अंतिम तुक का भाव है कि जैसे ही
कबीर जी ने रामानँद जी के पाँव छूए वैसे ही कबीर जी को भक्ति की असली रगत जुड़ गई।
जैसे लोहे को पारस से छूवा दो तो वह कँचन हो जाता है वैसे ही राम और कबीर में कोई
फर्क नहीं रहा। राम नाम के असर से अमृत बूँद तैयार होने लगी। उस बूँद के असर से
कबीर जी नाच उठे। हुकुमत, इस्लाम और समाज का डर न रहा। रूह आजाद हो गई। वह ऊँची-ऊँची
आवाज में गाने लगे:
कबीर पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ।।