5. गुरू की आवश्यकता
उन्नीसवीं सदी से पहले हर किसी के लिए गुरू बनाना जरूरी समझा जाता था। जो गुरू ना
धारण करे वो निगुरा होता और उसके हाथ से दान कोई नहीं लेता, निगुरे के हाथों कोई
पानी नहीं पीता था। कबीर जी राम नाम के सिमरन में तो लग गए परन्तु अभी तक उन्होंने
भजन और विद्या का गुरू किसी को धारण नहीं किया था। वह घर के कार्य करते। किसी न किसी
से अक्षर भी पढ़ लेते। जनम जाति नीची होने के कारण, ब्राहम्ण कोई भक्त या किसी
पाठशाला का पण्डित उसको अपना चेला नहीं बनाता था। राम नाम के सिमरन ने उनके मन की
आँखें खोल दी थीं। उनको ज्ञान बहुत हो गया था। 15-16 साल की उम्र में वह कई विद्वान
पण्डितों से ज्यादा सूझबूझ रखते थे। आप बाणी उचारते और उचारी हुई बाणी को भजनों के
रूप में गाते थे। माता पिता के कार्य में भी हाथ बँटाते थे। कबीर जी का बुना हुआ
कपड़ा सबसे ज्यादा बढ़िया होता था। पर कोई गुरू ना होने से वह व्याकुल रहने लगे, वह
व्याकुलता में यह गुरूबाणी गायन करते:
गउड़ी कबीर जी
कत नही ठउर मूलु कत लावउ ॥
खोजत तन महि ठउर न पावउ ॥१॥
लागी होइ सु जानै पीर ॥ राम भगति अनीआले तीर ॥१॥ रहाउ ॥
एक भाइ देखउ सभ नारी ॥
किआ जानउ सह कउन पिआरी ॥२॥
कहु कबीर जा कै मसतकि भागु ॥
सभ परहरि ता कउ मिलै सुहागु ॥३॥२१॥ अंग 327
कबीर जी ने एक स्याने पुरूष से हाथ जोड़कर पूछा: कि, हे बुजूर्ग
! बताओ मैं कैसे इस मन को, दिल को शान्त करूँ ? मेरा मन हरी के दर्शन के लिए
व्याकुल है। तब उस महापुरूष ने उत्तर दिया: कबीर ! परमात्मा के दर्शन तो गुरू ही
करवा सकता है। अब कबीर जी ने फैसला लिया कि अब तो गुरू को ढूँढना ही होगा, जो मुझे
हरी के दर्शन करवा सके।