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4. सुन्नत करवाने से मनाही

नबी इब्राहिम की चलाई हुइ मर्यादा सुन्नत हर एक मुस्लमान को करनी जरूरी है शरहा अनुसार जब तक सुन्नत न हो कोई मुस्लमान नहीं गिना जाता। कबीर जी आठ साल के हो गए। नीरो जी को उनके जान-पहचान वालों ने कहना शुरू कर दिया कि सुन्नत करवाई जाये। सुन्नत पर काफी खर्च किया जाता है। सभी के जोर देने पर आखिर सुन्नत की मर्यादा को पुरा करने के लिए उन्होंने खुले हाथों से सभी सामग्री खरीदी। सभी को खाने का निमँत्रण भेजा। निश्चित दिन पर इस्लाम के मुखी मौलवी और काजी भी एकत्रित हुए। रिश्तेदार और आस पड़ौस के लोग भी हाजिर हुए। सभी की हाजिरी में कबीर जी को काजी के पास लाया गया। काजी कुरान शरीफ की आयतों का उच्चारण अरबी भाषा में करता हुआ उस्तरे को धार लगाने लगा। उसकी हरकतें देखकर कबीर जी ने किसी स्याने की भांति उससे पूछा: यह उस्तरा किस लिए है ? आप क्या करने जा रहे हो ? तो काजी बोला: कबीर ! तेरी सुन्नत होने जा रही है। सुन्नत के बाद तुझे मीठे चावल मिलेंगे और नये कपड़े पहनने को मिलेंगे। पर कबीर जी ने फिर काजी से पूछा। अब मासूम बालक के मुँह से कैसे और क्यों सुनकर काजी का दिल धड़का। क्योंकि उसने कई बालकों की सुन्नत की थी परन्तु प्रश्न तो किसी ने भी नहीं किया, जिस प्रकार से बालक कबीर जी कर रहे थे। काजी ने प्यार से उत्तर दिया: बड़ों द्वारा चलाई गई मर्यादा पर सभी को चलना होता है। सवाल नहीं करते। अगर सुन्नत न हो तो वह मुस्लमान नहीं बनता। जो मुस्लमान नहीं बनता उसे काफिर कहते हैं और काफिर को बहिशत में स्थान नहीं मिलता और वह दोजक की आग में जलता है। दोजक (नरक) की आग से बचने के लिए यह सुन्नत की जाती है यह सुनकर कबीर जी ने एक और सवाल किया: काजी जी ! केवल सुन्नत करने से ही मुस्लमान बहिश्त (स्वर्ग) में चले जाते हैं ? क्या उनको नेक काम करने की जरूरत नहीं ? यह बात सुनकर सभी मुस्लमान चुप्पी साधकर कर कभी कबीर जी की तरफ और कभी काजी की तरफ देखने लगे। काजी ने अपने ज्ञान से कबीर जी को बहुत समझाने की कोशिश की, परन्तु कबीर जी ने सुन्नत करने से साफ इन्कार कर दिया। इन्कार को सुनकर लोगों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। काजी गुस्से से आग-बबुला हो गया। काजी आखों में गुस्से के अँगारे निकालता हुआ बोला: कबीर ! जरूर करनी होगी, राजा का हुक्म है, नहीं तो कौड़े मारे जायेंगे। कबीर जी कुछ नहीं बोले, उन्होंने आँखें बन्द कर लीं और समाधि लगा ली। उनकी समाधि तोड़ने और उन्हें बुलाने का किसी का हौंसला नहीं हुआ, धीरे-धीरे उनके होंठ हिलने लगे और वह बोलने लगे– राम ! राम ! और बाणी उच्चारण की:

हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥
दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥
काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
अर्ध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥    अंग 477

समझदारों ने समझ लिया कि बालक कबीर जी काजी से कह रहे हैं कि हे काजी: जरा समझ तो सही कि हिन्दू और मुस्लमान कहाँ से आए हैं ? हे काजी तुने कभी यह नहीं सोचा जी स्वर्ग और नरक में कौन जायेगा ? कौनसी किताब तुने पढ़ी है, तेरे जैसे काजी पढ़ते-पढ़ते हुए ही मर गए पर राम के दर्शन उन्हें नहीं हुए। रिशतेदारों को इक्कठे करके सुन्नत करना चाहते हो, मैंने कभी भी सुन्नत नहीं करवानी। अगर मेरे खुदा को मुझे मुस्लमान बनाना होगा तो मेरी सुन्नत अपने आप हो जायेगी। अगर काजी तेरी बात मान ली जाये कि मर्द ने सुन्नत कर ली और वह स्वर्ग में चला गया तो स्त्री का क्या करोगे। अगर स्त्री यानि जीवन साथी ने काफिर ही रहना है तो हिन्दू ही रहना चाहिए। मैं तो तुझे कहता हूँ कि यह किताबे आदि छोड़कर केवल राम नाम का सिमरन कर। मैंने तो राम का आसरा लिया है इसलिए मुझे कोई चिन्ता फिक्र नहीं। कबीर जी जब राम नाम का सिमरन कर रहे थे तो उनके मुखमण्डल पर निराला ही जलाल था, उस जलाल को देखकर काजी की आँखें चौंधियां गई।  zकाजी आपे से बाहर हो गया और कड़कती आवाज में बोला: कि मैं कोई बात नहीं सुनना चाहता, सुन्नत करवानी ही पड़ेगी। वह बोला कि यह बालक काफिर हो गया है। इसे पकड़ो। काजी ने अपना हाथ कबीर जी को पकड़ने के लिए बढ़ाया तो उसे ऐसा लगा जैसे उसने बिजली की नँगी तार को छू लिया हो। उसने डर के मारे हाथ पिछे हटा लिया। नीरो और नीमा हैरान हुये और डर भी गये क्योंकि बनारस का मुस्लमान हाकिम बहुत सख्त और जालिम स्वभाव का था। अगर उसको पता लग गया तो वह सजा देगा। सारे जुलाहे एक दूसरे की तरफ देखकर बातें करने लगे। नीरो ने आगे आकर कबीर जी को समझाने का प्रयास किया पर समझे हुए को कौन समझाए ? प्रहलाद की तरह कबीर जी की रग-रग में राम बस चुका था। वह तो इन्सान को इन्सान बनाने आए थे। जब बहुत बात बढ़ गई तो काजी और मुल्ला के हुक्म से जबरदस्ती सुन्नत करने की सलाह की गई। यहाँ पर एक और कौतुक हुआ। काजी ने जब कबीर जी की बाँह पकड़ी तो बाँह उनके हाथ में न आई, जैसे काजी ने किसी परछाई की बाँह पकड़ ली हो। इतना कुछ होने पर भी काजी उस परमात्मा की शक्ति को नहीं पहचान पाया क्योंकि वह झूठ का पैरेकार था। वह शर्मिन्दा हुआ और बोला: कबीर कहाँ गया ? उसको कौन उठाकर ले गया ? मैं अँघा तो नहीं हो रहा ? वह इधर-उधर देखने लगा, क्योंकि लोगों को कबीर की परछाई प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे रही थी। वह सारे हँस पड़े, जो कबीर जी को राम भक्त समझते थे, उन्हें आभास हो गया था कि राम शक्ति ने काजी को अँधा कर दिया है। घीरे-धीरे कबीर जी की परछाई गायब हो गई। घर के और बाहर के लोग हैरानी के गहरे सागर में गोते खाने लगे। काजी अपना पल्ला झाड़ के निकल गया और जाते-जाते कह गया कि वह हाकिम से इसकी शिकायत करेगा कि उसका निरादर हुआ है। काजी के जाने की देर थी कि कबीर जी फिर से लोगों के बीच प्रकट हुए। उन्होंने सभी की तरफ देखकर कहा: सारे खुशियां मनाओ ! जो कुछ पकाया है उसे खाओ, सुन्नत और हाकिम का ख्याल न करो। राम भली करेगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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