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3. कबीर जी का हिन्दू मन्दिरों के आगे बैठना

कबीर जी जब छै-सात साल की उम्र के हो गए। तब वह अपनी कद काठ हिसाब से अपनी उम्र से ज्यादा बड़े लगते थे। नीरो और नीमा कपड़े बुनने का कार्य करते थे। उस समय के रिवाज अनुसार कबीर जी ने भी बचपन में ही घरेलू धँधे में हाथ बटाना शुरू कर दिया। माता पिता बहुत खुश होते जब कबीर जी नन्हें-नन्हें हाथों से कार्य करते। उनके हाथ से धागा नहीं टुटता। वह कार्य करते हुए भी राम धुन में मगन रहते। जब कबीर जी को काम और खेल से अवकाश मिलता तो वह मन्दिरों की और चले जाते। उस समय गैर धर्मों वालों को मन्दिरों में आने की आज्ञा नहीं थी। इस बात का कबीर जी को ज्ञान था। वह मन्दिर के बाहर ही बैठ जाते और मन्दिर के अन्दर हो रहे हरि कीरतन, वेद मँत्र और आरती की धुन सुनते और उनका दिल कमल के फूल के समान खिल जाता। उनकी आँखें मुँद जाती, हाथ जुड़ जाते। उसने होठों से एक मधुर आवाज निकलती– राम! राम ! धरती पर मन्दिर की छाया में कबीर ऐसे प्रतीत होते जैसे कभी भक्त घ्रुव जी जँगल में अडोल बैठे तपस्या करते थे। कोई कभी पुछता कि यह बालक कौन है ? तो कोई जवाब देता कि कोई पता नहीं ! रोज आता है और इसी प्रकार बैठ जाता है, लगता है कोई शुद्र है। कबीर जी सुबह गँगा किनारे भी जाते थे और लोगों को सूरज की पूजा करता हुआ देखता थे। सूरज को पानी देते हुए लोगों को देखकर हँस देते थे। उस समय काशी में स्थान-स्थान पर पाठशालाऐं थीं। पुरे देश में से बालक आकर देवनागरी, सँस्कृत और वेद ज्ञान को पड़ते थे। कबीर जी ने एक पण्डित से बाल उपदेश ले लिया और देवनागरी की पैंती याद करने लगे। वो किसी पाठशाला में दाखिल न हो सके। किन्तु इधर-उधर से पूछकर अक्षर याद करते रहे। कबीर जी के राम राम के सिमरन की लगन बड़ती गई। नीरो के घर बरकतों की बारिश होने लगी। लोग उनका सत्कार करते गए। बालक कबीर भक्त बनते गए। वह राम नाम के शब्द बनाकर गाते रहता थे। मौलवी जलते-भूनते गए पर उन्हें रोक न सके। सारे जुलाहे कबीर जी के आशिक हो गए। वह कबीर जी को देखे बिना रोटी न खाते।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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