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20. कबीर जी का भक्ति उपदेश

बादशाह ने कबीर जी को कहा कि वो अपने मत का प्रचार करें। राम नाम के सिमरन से उसे सरकारी तौर पर रोका नहीं जाएगा। अब नित्य सतसंग होने लगे। कबीर जी की बाणी को लिखकर पढ़ा और याद किया जाने लगा। एक दिन बैरागी साधू कबीर जी के पास आकर बैठ गए। साधूओं ने पूछा– महाराज ! जीव जगत में रहकर किस प्रकार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ? कबीर जी ने बाणी गायन की:

कबीर मनु जानै सभ बात जानत ही अउगनु करै ॥
काहे की कुसलात हाथि दीपु कूए परै ॥२१६॥ अंग 1376

अर्थ: हे रामजनो ! मन को सारी समझ होती है कि यह चीज बूरी है या अच्छी। फिर भी यह अवगुण करता है, समझता नहीं। यह उसी प्रकार है जैसे किसी ने हाथ में दीपक लिया हो और फिर भी कूँए में गिर पड़े। भाव यह है कि जीव को पूरा पता है कि उसका करता परमात्मा है। परमात्मा ने आँखें दी हैं देखने के लिए, कान दिए हैं ज्ञान सुनने के लिए, जबान बोलने और पूछने के लिए और दिमाग सोचने विचारने के लिए। सत्य-असत्य, रोशनी-अँधेरा, ज्ञान-अज्ञान और सच-झूठ का इन्सान को पूरा ज्ञान होता है, फिर भी गलत काम करता है और काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहँकार का शिकार हो जाता है। किसी को दौलत का अहँकार है किसी को ज्ञान का, किसी को जाति का, कोई दिन-रात माया एकत्रित करता हुआ पुत्र-पुत्री, पत्नी और अपने लिए जगत की वाह-वाही लूटने के लिए शीशे के महल बनाता है। पर नहीं समझता कि:

कबीर कोठे मंडप हेतु करि काहे मरहु सवारि ॥
कारजु साढे तीनि हथ घनी त पउने चारि ॥२१८॥ अंग 1376

आखिर में तो साढे तीन हाथ या ज्यादा से ज्यादा पौने चार हाथ की जगह मिलती है। इन्सान परमात्मा के नाम का सिमरन नहीं करता पापों में ही उलझा रहता है:

कबीर राम नाम जानिउ नही पालिउ कटक कुटंब ।।
धंधे ही महि महि गइओ बाहरि भई न बंब ।। अंग 1376

राम नाम का सिमरन तो किया ही नहीं था। परिवारों के दल पालता रहा। मनुष्य जन्म जो राम की भक्ति के लिए मिला है। वो धँधों में ही गवाँ दिया। धँधों में मस्त आदमी अधमरा होकर दुनियाँ में विचरता रहता है। इसलिए हे राम जनों ! सदा मुक्ति की प्राप्ति के लिए इस दिखाई देने वाले जगत से मोह तोड़ो। कबीर जी का उपदेश सुनकर साधूओं की तृप्ती हो गई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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