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19. कबीर जी को हाथी के आगे फैंकना

डाकू रूपी बादशाह, परमात्मा से नहीं डरते थे। लोधी ने दो बार परमात्मा की शक्ति को देखा पर वह जिद पर कायम रहा। उसे जब फिर बताया गया कि कबीर जी तो आग में भी नहीं जले तो भी उसकी आँखों की पट्टी नहीं खुली और उसने फिर हुक्म दिया कि जाओ और कबीर जी को फिर से पकड़ लाओ। अगर मैं कबीर जुलाहे को ना मार सका तो सारे राज्य में बगावत हो जाएगी। बागी टिकने नही देंगे। हर कोई धर्म बदलने के लिए तैयार हो जाएगा। वह कोई करामाती नहीं है, इतफाक से वह दो बार बच गया है। बादशाह का वजीर सलाहकार, काशी नगर का कोतवाल और अन्य सैनिक पहले ही दो बार चमत्कार देखकर डर गए थे, वह कबीर जी को इस बार पकड़ने के लिए तैयार नहीं थे, परन्तु बादशाह की जिद के लिए उन्हें कबीर जी को फिर पकड़कर लाना पड़ा। कबीर जी के श्रद्धालूओं ने पकड़ने वालों से कहा कि तुम्हारी क्या मौत आई है जो बार-बार पकड़ने आ जाते हो। आखिर आत्याचारों की भी कोई हद होती है। कबीर जी को इस बार एक शराब पिलाए गए मस्त हाथी के आगे जँजीरें बाँधकर डालने का हुक्म दिया गया। इस नजारे को देखने के लिए पूरा काशी नगर उमड़ा हुआ था और कबीर जी के श्रद्धालू राम नाम का सिमरन कर रहे थे। कोतवाल को पूरा भरोसा था कि यह शराब पीया हुआ हाथी जरूर ही अपना काम करेगा। कबीर जी ने इस सारी घटना को बाणी में इस प्रकार ब्यान किया:

रागु गोंड बाणी कबीर जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥ हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥
हसति भागि कै चीसा मारै ॥ इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥ काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ ॥
रे महावत तुझु डारउ काटि ॥ इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥
हसति न तोरै धरै धिआनु ॥ वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥
किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥ बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥
कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥ बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥
तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥ मन कठोरु अजहू न पतीना ॥
कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥
चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥  अंग 870

अर्थ: हाथ-पैर बांधकर जब हाथी के आगे डाला गया तो हाथी चीखें मारता हुआ भागता हुआ मेरी तरफ आया। उसकी चीखें ऊँची थीं। हाथी का आना देखकर कबीर जी ने कहा कि हे परमात्मा मैं तेरी मूर्ति पर बलिहारी जाता हूँ। भाव यह कि हाथी नहीं प्रत्यक्ष परमात्मा ही मूर्तिमान होकर के आए हैं। वाह मेरे मालिक ! तेरा जोर कितना है। इस नाचीज भक्त को डराने के लिए कहर के साथ आ रहे हो। देखो काजी कितना क्रोधवान है और गुस्से से कह रहा है कि हाथी को आगे बढ़ाओ। किन्तु हाथी कबीर जी के पास आकर धीमा पड़ गया था। उसक दिल में भी परमात्मा का अँश है और वो नहीं चाहता था कि कबीर जैसे भक्त को नुक्सान पहुँचाया जाए। इस संत का क्या कसूर है जो इस प्रकार बाँधकर मेरे आगे डाला गया है। कहते हैं कि उस परमात्मा की लीला का कोई अंत नहीं है। पशू भी उसका आदर और सत्कार करते हैं। हाथी ने कबीर जी को नमस्कार किया और अपना पैर कबीर जी पर नहीं रखा। यह देखकर लोगों ने तालियाँ मारीं और परमात्मा का धन्यवाद किया। यह कौतक देखकर भी काजी को ज्ञान न हुआ। वो महावत को यह कहता रहा कि महावत मारो, हाथी को आगे बढ़ाओ। हाथी को महावत ने कुँडा मारकर इशारा किया कि वो कबीर जी को कुचल दे पर हाथी तो कबीर जी के आगे माथा टेक रहा था।

जब दो तीन कुँडे मारे तो हाथी को गुस्सा चढ़ गया और वो वह पागल होकर जोश से पिछे मुड़ गया जिधर काजी, मुल्ला और सरकारी सैनिक थे वहाँ पर जाकर उसने 3-4 काजी मार दिए, सैनिक कुचल दिए और महावत को धरती पर पटकर जँगल की और भाग गया। सबने कहा कि कबीर जी की भक्ति शक्ति प्रकट हुई है। सैनिक घबराए हुए बादशाह सिकँदर लोधी के पास पहुँचे और सारी घटना सुनाई। वह भी डर गया और बूरी तरह घबरा गया। उसे लगा कि वह हाथी मर गया है और उसकी आत्मा उसे लेने के लिए उसकी और आ रही है। इस ख्याल से उसका शरीर काँपने लगा और उसने जल्दी से घबराकर कहा कि जल्दी करो कबीर जी को मेरे पास लेकर आओ ! वह पूरी बात ही नहीं कर सका। बादशाह के दिल से क्रोध का नाश हो चुका था। वह सोचने लगा कि सचमुच ही उससे गलती हुई है। कबीर एक करामाती और खुदा की दरगह में पूजा हुआ फकीर है अगर सचमुच ही उसने श्राप दे दिया तो क्या होगा ? इसी ख्याल ने उसके दिमाग को चकरा दिया। कबीर जी गँगा किनारे पर समाधी लगाकर बैठे थे। बादशाह के सैनिक वहाँ पर पहुँचे, वह बहुत घबराए हुए थे। उन्होंने कबीर जी को माथा टेका और हाथ जोड़कर बैठ गए पर जुबान से कुछ भी कहने का हौसला न हुआ।

कबीर जी ने आँखें खोली तो उन्होंने सैनिकों से पूछा: कहो राम जनो ! क्या बादशाह ने हमें बुलाया है ? सैनिकों ने कहा: महाराज ! आप तो अर्न्तयामी हैं, आपने सब जान लिया है। कबीर जी ने कहा: सैनिकों ! अब कौन सी सजा देना चाहते हैं ? सैनिकों ने कहा: सजा नही ! वो तो आपसे माफी माँगने के लिए बुलाया है, वो आपसे माफी माँगना चाहते हैं। उनसे भूल हो गई है। वो आपका सत्कार करना चाहते हैं। कबीर जी: भक्तों ! हम साधूओं का सत्कार कौन करता है, वो तो मेरे राम की लीला है। कबीर जी जब बादशाह के पास पहुँचे तो बादशाह ने कबीर जी को आते देखकर उनके चरण स्पर्श करना चाहा तो कबीर जी ने उसे पकड़कर रोक लिया। बादशाह निहाल हो गया। उसने सबके सामने कहा कि काजी और मुल्ला ने आपकी ऐसे ही शिकायत कर दी। आप तो कोई वली हो। खुदा आपके साथ हैं। इस बन्दे को माफ करो। कबीर जी ने बादशाह को उपदेश किया। उसे नसीहत दी कि वो सारी प्रजा से अच्छा सलूक करे। इन तीन भयानक सजाओं से बच जाने के बाद तो कबीर जी की सारी काशी नगरी में बहुत शोभा हुई माता लोई और पुत्र कमाला जी भी देख सुनकर बहुत प्रसन्न हुये। उनकी जन्म-जन्म की भुख मिट गई। वो कबीर जी द्वारा तैयार राम नाम रूपी जहाज के मलाह बन गए जो लोगों को सवार करके भवसागर से पार करते रहे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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