18. कबीर जी को आग में फैंकना
मूर्ख बादशाह ने दोबारा कबीर जी को पकड़ने के लिए अपन सैनिक भेजे। उसके सामने जब
कबीर जी आए तो वह ऊँट-पटाँग बकने लग गया, ओए कबीर ! क्या तूँ राम नाम को नहीं छोड़ेगा
? तूँ क्या समझता है अगर तैरने की शक्ति से बच गया है तो क्या तुझे किसी और मौत नहीं
मारा जा सकता ? मैं बादशाह हूँ और हजरत नबी रसूल की मेहर से उसके इस्लाम को
प्रचारूँगा। कोई काफिर मेरे सामने नहीं अटक सकता। मैं तेरे तलवार से टुकड़े करवा
दूँगा। तेरा जन्म मुस्लमानों के घर का है और हिन्दू बना फिरता है। तुझे शर्म नहीं
आती। बादशाह गुस्से से घबराया हुआ था। उससे सीधी बात भी नहीं की जा रही थी। वह हार
चुका था। उसकी हार उसको शर्मिन्दा किये जा रही थी। कबीर जी ने बड़े ठंडे अन्दाज में
कहा: बादशाह ! तेरी बादशाही केवल धरती तक ही है, लेकिन मेरे परमात्मा की बादशाही हर
एक स्थान पर है। चाहे धरती हो, चाहे पाताल हो या फिर चाहे आकाश ही क्यों न हो। फिर
कबीर जी ने यह बाणी गायन की:
कबीर जिह दरि आवत जातिअहु हटकै नाही कोइ ॥
सो दरु कैसे छोडीऐ जो दरु ऐसा होइ ॥६६॥ अंग 1367
अर्थ– परमात्मा का दर (दरवाजा, किवाड़) ऐसा है जहाँ पर सबका
सत्कार होता है। कोई नहीं रोकता। वहाँ पर सुख ही सुख हैं। ऐसे अच्छे दर को भला कैसे
छोड़ सकते हैं। मैं तो राम नाम को नहीं छोड़ सकता, मैं तो वो ही सब करता हूँ जो कुछ
राम नाम कहता है। फिर कबीर जी ने एक और बाणी गायन की:
कबीर कूकरु राम को मुतीआ मेरो नाउ ॥
गले हमारे जेवरी जह खिंचै तह जाउ ॥७४॥ अंग 1368
अर्थ– मैं तो राम का कुत्ता हूँ। मेरा नाम मुतीआ। मेरे गले में
राम ने जँजीर बांधी हुई है। जिधर वह रखता है, उधर मैं जाता हूँ। मेरे बस की बात नहीं।
मुझे क्या कहते हो, मेरे राम से कहो। उसी से पूछो। कबीर जी की निरवैरता, निरभयता और
दृढ़ विश्वास ने बादशाह के तन-बदन में आग लगा दी। उसने गुस्से में आकर एक ही हुक्म
दिया– इसे आग में जला दो। यह सुनकर दरबारी जनता के लोग और कबीर जी के श्रद्धालू डर
गए। उन सभी के दिल हिल गए। सैनिक कबीर जी को पकड़ कर ले गए। सारी काशी में हाहाकार
मच गया। लोग यह सोचकर कबीर जी के पीछ-पीछे चल पड़े कि जिस प्रकार से गँगा में कबीर
जी नहीं डूबे थे, इस बार भी परमात्मा कोई चमत्कार दिखाएगा। पूरे शहर में हड़ताल हो
गई। शहर के बाहर बहुत बड़ा एक लकड़ियों का ढेर रखा गया और कबीर जी को उसके पास ले जाया
गया। काजी ने एक बार फिर कबीर जी से पूछा: कबीर ! अभी भी समय है मान जा, आग ने किसी
को भी नहीं छोड़ा है। ऐसे जवानी में मौत न ले। कबीर जी: काजी ! तूँ अपना काम कर। मेरा
राम जाने या मैं जानूँ ! यह कहकर कबीर जी मन एकागर करके प्रभु चरणों में जोड़ लिया।
राम ! राम ! कहते हुए वो सब भूल गए और परमात्मा के साथ एक-मिक हो गए। कब जल्लादों
ने कबीर जी को उठाकर लकड़ियों की चिता पर बिठाया उन्हें पता ही नहीं चला। आग जलाई गई,
जब आग की लपटें उठी तो सारे श्रद्धालूओं ने परमात्मा से पूकार की। मुस्लमान, काजी
और मुगल सिपाही हँसे। एक दम आँधी चलने लगी और बादल आ गए। आँधी की तेज हवा ने पहले
आग को तेज किया और फिर बारिश ने एक दम आग को ठँडा कर दिया। कबीर जी राम नाम का
सिमरन करते रहे उनकी जँजीरें टूट गई। हाथ में माला पकड़े हुए कबीर जी चिता से उतर आए
और अपने शहर की तरफ चल दिए। लोग आँधी और बारिश देखकर अपने घरों को चले गए थे। सैनिकों
को हिम्मत न हुई कि वह कबीर जी को पकड़ने का प्रयास करें, उन्हें दिखाई दे रहा था कि
जैसे कई जवान कबीर जी की रक्षा कर रहे हैं और उनके हाथों में नँगी तलवारें चमक रही
हैं। परमात्मा ने जिस प्रकार आग से भक्त प्रहलाद जी को बचाया था, ठीक इसी प्रकार से
कबीर जी को भी बचा लिया था। अब सभी घरों से बाहर आ गए थे, क्योंकि आँधी और बारिश
बन्द हो गई थी और सभी कबीर जी के पीछे बाणी गाते हुए उनके दर्शन करके जन्म सफल कर
रहे थे। बड़े-बड़े भक्त साधू और अहँकारी पण्डित भी कबीर जी के पास आए। सबकी जुबान पर
से एक ही नाम निकलता– राम ! राम ! राम ! राम ! राम।