15. बादशाह के पास शिकायत
कबीर जी के समय दिल्ली का बादशाह सिकन्दर लोधी था। बनारस और पटना आदि शहर दिल्ली की
बादशाही के अधीन थे। फिर भी मुस्लमानों की शिकायतों को सुनने के लिए काजी और मौलवियों
का सेवक रहता था वो कभी-कभी अपने सारे राज्य का दौरा करता था। उसके दौरे के समय
प्रजा फरियाद करती थी। सारी काशी में कबीर जी की चर्चा थी। ब्राहम्ण और हिन्दू कबीर
जी से इस कारण तँग थे कि कबीर जी ब्राहम्णों की ठगी का प्रचार करते थे। ब्राहम्णों
की लूट-खसोट का भेद प्रकट होता था। हिन्दू और मुस्लमानों के मिलाप के लिए और
छूत-छात के विरूद्ध प्रचार होता था। इन्सान को इन्सान समझने की कबीर जी प्रेरणा देते
थे। यह सब बातें ब्राहम्णों को अच्छी नहीं लगती थीं। जबकि मुस्लमानो को गिला था कि
कबीर जी मुस्लमानों के यहाँ पर जन्म लेकर राम नाम क्यों जपते हैं। कबीर जी ने
सुन्नत भी नहीं कराई। वो शराह की विरोधता करते हैं। यह सब कबीर जी को रोकना ही नहीं
चाहते थे बल्कि उन्हें सदा के लिए चुप भी कराना चाहते थे। जब बादशाह काशी नगरी में
आया तो ब्राहम्ण और मुस्लमान बादशाह के पास गए। सभी ने फरियाद की कि कबीर कुफर का
प्रचार करता है। यह इस्लाम और हिन्दू सनातनी धर्म के विरूद्ध है। वो ऐसी बाणी पढ़ता
है जो जवानो को गुमराह करने वाली है, उन्होंने बादशाह को गुरूबाणी के कुछ शब्द पढ़कर
सुनाए:
हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥
दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥
काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
अर्ध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥ अंग 477
अर्थ: काजी, जरा समझ तो सही कि हिन्दू और मुस्लमान कहाँ से आए
हैं ? हे काजी तुने कभी यह नहीं सोचा जी स्वर्ग और नरक में कौन जायेगा ? कौनसी
किताब तुने पढ़ी है, तेरे जैसे काजी पढ़ते-पढ़ते हुए ही मर गए पर राम के दर्शन उन्हें
नहीं हुए। रिशतेदारों को इक्कठे करके सुन्नत करना चाहते हो, मैंने कभी भी सुन्नत नहीं
करवानी। अगर मेरे खुदा को मुझे मुस्लमान बनाना होगा तो मेरी सुन्नत अपने आप हो
जायेगी। अगर काजी तेरी बात मान ली जाये कि मर्द ने सुन्नत कर ली और वह स्वर्ग में
चला गया तो स्त्री का क्या करोगे। अगर स्त्री यानि जीवन साथी ने काफिर ही रहना है
तो हिन्दू ही रहना चाहिए। मैं तो तुझे कहता हूँ कि यह किताबे आदि छोड़कर केवल राम
नाम का सिमरन कर। मैंने तो राम का आसरा लिया है इसलिए मुझे कोई चिन्ता फिक्र नहीं।
मुस्लामानों ने आगे कहा कि कबीर जी दोजक और बहिशत को नहीं मानता। बताओं जो कोई इस
बात को सुनेगा, भला वह कैसे मुस्लमान कह सकता है ? और सुनो:
आसा ॥
हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥
अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥
काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ ॥
रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥
सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥
निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥
पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥
खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥
आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥
माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रह्मु पछाना ॥
कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥ अंग 480
अर्थ: हम तो गरीब, खुदा के बँदे हैं। खुदा ने हमें गरीबी और अपनी
भक्ति बक्शी है। उसी को करते रहते हैं और जीवन का मनोरथ भी यही समझते हैं पर काजी
और मुल्ला तो राजसी ठाठ-बाठ चाहते हैं। उनको दोलत, प्रशँसा और पदों की इच्छा है।
खुदा को उसकी भक्ति ही सबसे पहले भाती है। उसके आगे कोई जोर नहीं चलता जो उपदेश काजी
देता है वह खुदा को नहीं भाता। परमात्मा तो सबको एक ही निगाह से देखता है। अगर किसी
का दिल शुद्ध नहीं और वो रोजे रखता है और रोज नमाज पढ़ता है तो भी वो स्वर्ग यानि
बहिशत नहीं जा सकता। वहाँ पर तो केवल साफ और नेक दिल वाले ही जा सकते हैं। भक्ति
करने वाले इन्सान के दिल में ही मक्का और मदीना (काबा) है। उसको बाहर जाने या हज
करने की जरूरत नहीं होती। असल मुस्लमान की नमाज है कि वो हर एक से प्यार करे। किसी
के साथ धोखा न करे और ना ही किसी को लूटे। अच्छी अक्ल ही कलमा है। पाँचों को जो मारे
तो वही मुसला-नमाज पढ़ने वाली कला है। जो पाँचों यानि की काम, क्रोध, लोभ, मोह और
अहँकार को नहीं मार सकता वो कभी भी मुस्लमान नहीं बन सकता। परमात्मा एक है, उसको
खुदा, भगवान, अल्लाह, ईश्वर या रब कहो, वो एक ही है, दो नहीं हो सकते। यह सारा भेद
मुझे मिल गया है। फर्जी भक्ति से प्राप्त होने वाले स्वर्ग की मुझे जरूरत नहीं है।
मै नरक में ही जाना अच्छा समझता हूँ। यह ज्ञान समझ लो। पर इन काजीयों ने बादशह को
अनाप-शनाप अर्थ बताये जो शराह के बिल्कुल उलट थे। फिर एक और शब्द सुनाया गया:
बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥
ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥
मन रे संसारु अंध गहेरा ॥
चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ ॥
कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥
जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥
दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥
बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥
राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥
हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥ अंग 654
अर्थ: इस शब्द को सुनकर तो हिन्दू और मुस्लमानों के मुखी बहुत
ही गुस्से से बादशाह को समझाने लगे कि जहाँपनाह देखो ! सारे बूजुर्ग शिक्षा देते
हैं कि धर्म की मर्यादा को पूरा करना चाहिए पर कबीर जी कहते हैं कि बुत की पूजा
कर-करके हिन्दू मर गए और मुस्लमान सिर निवा-निवाकर (सजदा करके) मर गए। मौत होने पर
हिन्दू जला देते हैं और मुस्लमान गाढ़ देते हैं पर परमात्मा का भेद दोनों ही नहीं
जान पाते। यहाँ पर काजी और मौलवियों ने केवल अपने मतलब के अर्थ किए जबकि पूरे शब्द
का अर्थ पाखण्ड के विरूद्ध और सची परमात्मा की भक्ति के हक में है। भाव यह है कि
मरन और जन्म की रस्मों को हिन्दू और मुस्लमान करते हैं। सारा सँसार अँधेरे में धक्के
खा रहा है। चारों तरफ यमदूतों का भय है। जीव कुकर्म करता हुआ यमलोक जाता है। राजाओं
के दरवाजे पर जाकर कविजन कविता पढ़-पढ़कर वाह-वाही लूटते हैं। जोगी तपस्वी और महात्मा
लम्बी जटाऐं रखते हैं। इन सब में से कोई भी परमात्मा की गति नहीं पा सकता, क्योंकि
वो लम्बी जटाऐं तो रख लेते हैं परन्तु परमात्मा की भक्ति और लोक सेवा नहीं करते। कई
राजाओं ने दौलत जमा की, हीरे मोतियों के खजाने भर लिए। कई पण्डितों ने वेदों
शास्त्रों के पाठ किए पर स्त्री के रूप में फँसकर अपने आप को गवाँ बैठे। सची बात
कहता हूँ– हे जीव ! राम नाम सिमरन किए बिना कभी गुजारा नहीं हो सकता। बेशक परखकर
देख लो। क्या किसी ने भक्ति किये बिना मुक्ति प्राप्त की है ? कबीर जी का ठीक उपदेश
है कि पाखण्ड छोड़कर भक्ति करो तो मुक्ति प्राप्त होगी।
ब्राहम्णों और काजियों की बातें सुनकर बादशाह सिकन्दर लोधी ने
कबीर जी के पास अपने सैनिक भेजे। उनको हुक्म दिया कि जितनी जल्दी हो सके कबीर को ले
आओ। वह बागी हैं। प्रजा में बदअमनी फैला रहा है। बादशाह का हुक्म लेकर सैनिक चल पड़े।
वह उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर कबीर जी थे, परन्तु कबीर जी वहाँ पर अकेले नहीं
थे, उनके चारों और संगत जुड़ी हुई जी और राम नाम का सिमरन और व्याख्या चल रही थी,
ढोलक, छैने आदि से राम धुन की तर्ज पर शबद गायन हो रहे थे। तभी सैनिक आ गये और वह
सरकारी रौब में बोले: कबीर ! तुझे बादशाह ने बुलाया है। सारी संगत सोच में पड़ गई कि
क्यों बुलाया है ? क्या किसी ने कोई शिकायत की है ? अर्न्तयामी कबीर ने ये
दिव्य-दृष्टि से सब कुछ जान लिया और वह सोचने लगे कि बादशाह के पास जाना ही होगा और
राम नाम की महिमा का बखान करना ही होगा। राम शक्ति बादशाह ही नहीं बल्कि सारे लोगों
के आगे प्रकट होगी। वह उठ बैठे और सैनिको से बोले: सैनिकों ! चलो। सैनिक बोले: कबीर
! हुक्म है कि आपके हाथ बाँधकर लाया जाए। कबीर जी ने अपने हाथ आगे कर दिये। तभी लोगों
ने हल्ला मचा दिया। कईयों की आँखों से आँसू आ गए। सभी ने कहा इन्हें मत पकड़ों। यह
रब का रूप हैं, खुद राम हैं। परमेश्वर हैं। पर किसी ने नहीं सुनी। वह कबीर जी को
लेकर चल पड़े। पीछे-पीछे संगत भी चल पड़ी। कबीर जी अपने राम को याद करते हुए ऊँचे-ऊँचे
गाते गए:
गउड़ी १३ ॥
फुरमानु तेरा सिरै ऊपरि फिरि न करत बीचार ॥
तुही दरीआ तुही करीआ तुझै ते निसतार ॥१॥
बंदे बंदगी इकतीआर ॥ साहिबु रोसु धरउ कि पिआरु ॥१॥ रहाउ ॥
नामु तेरा आधारु मेरा जिउ फूलु जई है नारि ॥
कहि कबीर गुलामु घर का जीआइ भावै मारि ॥२॥१८॥६९॥ अंग 338
अर्थ: हे परमात्मा ! यह बादशाह का हुक्म नहीं, यह तो तेरा ही
हुक्म है। बादशाह कौन है ? हुक्म देने वाला। मैं तेरा हुक्म मानने तो तैयार हूँ। आप
ही दुखों का दरिया और आप ही पार करता है। बँदे का काम है बँदगी करना। परमात्मा से
गुस्सा करो या प्यार ? जवाब में प्यार ही आएगा। अगर तेरे नाम का आसारा लिया जाए तो
आग भी फुलों समान प्रतीत होती है। हे प्रभु ! हम तेरे सेवक हैं, तूँ चाहे मार या रख
हमें कोई ऐतराज नहीं। हैरानमयी बाणी सुनकर कबीर जी के भगतों, श्रद्धालूओं और दर्शकों
के नेत्रों में प्रेम और श्रद्धा के आँसु बहने लगे। सभी में हाहाकर मच गया। वह कहने
लगे कि जरूर प्रलय आएगी, महा कलयुग है जो भक्त कबीर जी जैसे को सजा दी जा रही है।
काशी नगरी तबाह हो जाएगी। पर कबीर जी मगन होकर बाणी गा रहे थे:
गउड़ी १२ ॥
मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥
सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥
डगमग छाडि रे मन बउरा ॥
अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ ॥
काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥
कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥ अंग 338
अर्थ: हे जीव ! दुनियाँ से ना डर। जो तेरे दिल में है। उसको
प्रकट कर। यह शरीर एक माया का बर्तन है। सच तो तेरे पास है फिर क्यों डरता है। जिस
समय हाथ में संधउरा, (वह नारियल जो स्त्री अपने हाथ में लेकर पति के साथ जल मरने की
कसमें खाती है) लिया है, भाव दिल में राम नाम का सिमरन करने की सौगँध उठाई है तो
क्यों डरते हो। दुनियाँ समाज, धर्म और बादशाह के दुनियावी बन्धनों की चिन्ता नहीं।
मैं खुद मरने को चाहता हूँ, क्योंकि मरकर पति परमेश्वर से प्यार अमर रह सकता है। यह
जगत माया, अँहकार, काम और क्रोध से जला हुआ है। इसको असलियत का ज्ञान नहीं। दुनियाँ
या बादशाह कुछ भी कहें मैं राम नाम को छोड़ नहीं सकता, क्योंकि मेरा राम सारे जगत का
कर्ता है ऊँचें से भी ऊँचा।