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14. चोर की जान बचानी

धीरे-धीरे कबीर जी ब्रहमवेता बन गए। जीवों पर दया करनी, नीचे गिरे लोगों को अपने सीने से लगाना उनका धर्म बन गया था। उनके रोज रोज के अनेकों कौतक देखकर लोग हैरान होते थे। उनको समझ नहीं आता था कि कबीर जी धरती पर देवता हैं या मनुष्य। ब्रहम ही ब्रहम उनको दिखाई देता था। एक दिन रात के समय आपके घर पर चोर आ गया। उस चोर के पिछे लोगों की भीड़ लगी हूई थी, वह अपनी जान बचाता फिर रहा था। उस चोर ने सोचा कि कबीर जी भक्त हैं, वह उसकी जान अवश्य बचाऐंगे। उसको अन्दर दाखिल होता देखकर कबीर जी ने कहा: क्यों राम जन ! क्या काम है ? चोर ने कहा: हे राम के भक्त ! राम के नाम पर मेरी रक्षा करो मैं एक चोर हूँ। लोग मेरा पीछा कर रहे हैं अगर मैं उनके हाथ में आ गया तो वो लोग मेरी हडडी-पसली तोड़ देंगे। मुझे बचा लो। कबीर जी तो दया के ही सागर थे। उन्होंने उत्तर दिया कि: जा ! सामने मँजी (खटिया) पर मेरी लड़की सो रही है, उसके साथ सो जा। कबीर जी की बात सुनकर चोर के पैरों की जमीन खिसक गई। उसका शरीर ठँडा हो गया। उसको सोचना चाहिए था कि भक्त जी ने उसको हुक्म दिया है ? पर वह सोच नहीं सका क्योंकि उस समय उसके पीछे लोग थे। उसे जान बचाने की चिँता थी। वह कबीर जी की पुत्री कमाली जी की मँजी (खटिया) पर उसके साथ लेट गया। लोग आगे आए तो कईयों ने प्रश्न किया: महाराज जी ! यहाँ पर कोई चोर तो नहीं आया। कबीर जी ने कहा: यहाँ पर पर तो घर के लोग सो रहे हैं, चाहे तो तलाशी ले लो। लोगों ने पूरे घर की तलाशी ली, पर मँजियों पर सोए हुओं को कुछ नहीं कहा। लोग बाहर चले गए। बाहर जाकर सब अपने-अपने घरों में घुस गए। चोर को नींद तो आई नहीं थी। उसने सोचा कि वह सूरज चढ़ने से पहले ही कबीर जी के घर से दूर चला जाएगा। दिन चढ़ गया तो लोग देख लेंगे और उसे पकड़ लेंगे। वो उठ कर जाने ही लगा। तभी कबीर जी ने कहा: महाश्य जी ! कहाँ जा रहे हो ? चोर ने माथा टेकते हुए कहा: भक्त जी ! आपने मेरी जान बचाई है, अब सब शान्ति हो गई है। कबीर जी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा: नहीं बेटा ! तूँ अब नहीं जा सकता। राम का भजन कर। मैं तुझे अपना जमाई बना चुका हूँ। सुबह कमाली के साथ तेरा विवाह कर दिया जायेगा। जो बचन हो गया सो हो गया। चोर ने फिर कबीर जी के पैर पकड़ लिए। उसकी आत्मा पर जो जन्म-जन्म की मैल जमी हुई थी, वह घूल गई। वह रोते हुए कहने लगा: महाराज जी ! मैं पापी हूँ ! मैं तो महा पापी हूँ मुझे जाने दो। मैं इतना भार उठाने के योग्य नहीं हूँ। मेरा बाप चोर था, मैं चोर हूँ। मैंने कईयों के घर लूटे हैं और कईयों को मारा भी है, मेरे हाथ तो लहू से सने हैं। आप सचमुच राम रूप हैं। कबीर ने चोर को नहीं जाने दिया। दिन चड़ने पर कबीर जी ने लोई जी को सारी बात बता दी। कमाल और कमाली को भी पता लग गया। वह बहुत हैरान हुए। शायद चोर की यह कोई पूर्व के जन्म की नेकी थी, जो कबीर जी की पुत्री कमाली जी के साथ सँजोग बन रहा था। वह चोर कुमार्ग छोड़कर शुभ मार्ग पर लग गया। चँदन के पास पहुँचकर चँदन बन गया। पारस से छूह कर सोना हो गया। पर जब लोगों को इस पूरी बात का पता लगा तो लोग भाँति-भाँति प्रकार की बातें करने लगे। कोई भला कहने लगा और कोई बुरा। लोगों की बातें सुनकर कबीर जी ने यह बाणी उच्चारण की:

गउड़ी कबीर जी ॥ जब हम एको एकु करि जानिआ ॥
तब लोगह काहे दुखु मानिआ ॥१॥ हम अपतह अपुनी पति खोई ॥
हमरै खोजि परहु मति कोई ॥१॥ रहाउ ॥
हम मंदे मंदे मन माही ॥ साझ पाति काहू सिउ नाही ॥२॥
पति अपति ता की नही लाज ॥ तब जानहुगे जब उघरैगो पाज ॥३॥
कहु कबीर पति हरि परवानु ॥
सरब तिआगि भजु केवल रामु ॥४॥३॥  अंग 324

अर्थ: भक्त श्री कबीर जी कहते हैं कि जब हमने परमात्मा को एक समझ लिया है और परमात्मा सारे बँदों को भी एक समान मानता है। चोर और साधू, भले और बूरे को एक समान समझता है तो लोग क्यों दुखी होते हैं ? हम बूरे और पत रहित हैं। अपनी इज्जत गवाई है। हम मँदे हैं। सारे लोग समझ लें कि हम मँदे हैं। जब मँदे हैं तो किसी से कोई साँझ नहीं रखते। इज्जत और सत्कार यहीं पर ही हैं। इज्जतदार और अपने आप का तभी पता लगेगा जब परमात्मा के दरबार में जाकर राज खुलेगा। अच्छा यही है कि आप जगत की फालतू और इस प्रकार की बहसों को छोड़कर आप परमात्मा के नाम का सिमरन करो। किसी को अच्छा और बूरा कहने का क्या लाभ। इस प्रकार के सारे न्याय परमात्मा के पास जाकर होंगे। यहाँ पर तो कोई न कोई पाखण्ड करके लोगों में मान्यता करवा ही लेता है। कबीर जी ने किसी की बात नहीं सुनी और उस चोर के साथ अपनी पुत्री कमाली जी का विवाह कर दिया। पहले तो बिरादरी अड़ी परन्तु बाद में मान गई, क्योंकि उन्हें डर था कि कबीर जी मुँह से कोई बचन न बोल दें, जिससे उन्हें पछताना पड़े।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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