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13. साधूओं से ज्ञान चर्चा

कबीर जी की उम्र स्यानी हो गई। वह बड़े भक्त बन गए। दिन-रात सतसंग होने लगे। साधू और श्रद्धालू आठों पहर ही पास बैठे रहने लगे। एक दिन बहुत सारे साधू कबीर जी के पास आकर बैठ गए। साधूओं ने प्रश्न किया: कबीर जी ! जीव को मोक्ष की प्राप्ति कैसे होती है ? इसका जवाब कबीर जी ने ऐसे दिया: भक्तों ! मोक्ष प्राप्ति के लिए जरूरी है कि सबसे पहले राम नाम का सिमरन किया जाए। सिमरन भी इस तरह हो:

राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥ ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥ सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥ इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥ चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥  अंग 337

अर्थ: राम का नाम तो बहुत लोग जपते हैं, परन्तु दिल लगाकर कोई नहीं जपता। राम नाम का जाप उस प्रकार करो जिस प्रकार ध्रुव और प्रहलाद ने किया था और फिर अपने आपको राम के भरोसे छोड़ दो और अरदास करो हे प्रभु ! तेरे भरोसे पर सारा परिवार भक्ति के बेड़े पर चड़ाया है आप अपनी मेहर करके इसे पार लँघाना। गुरू जी कृपा ने ऐसी बुद्धि बख्शी है कि जनम-मरन का खात्मा हो गया। कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा को जपो। इधर और उधर यानि लोक ओर परलोक में परमात्मा ही दान करने वाला है। राम पर भरोसा रखो और भक्ति करो। एक जिज्ञासू साधू ने कहा: कबीर जी ! जप तप और राम नाम का सिमरन तो बहुत करते हैं पर मन शाँत नही होता। लिव नहीं जुड़ती। यह सुनकर कबीर जी बोले:

किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥
जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥  अंग 337

अर्थ: चाहे जप करो चाहे तपस्या करो या सँजम में जीवन व्यतीत करते हुए व्रत रखो और स्नान करो, फिर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, जब तक परमेश्वर से प्रेम करने की और भक्ति करने की जुगती न समझी जाए। सत, सँजम, सँतोष, नेकी, सेवा, भरोसा आदि गुणों का श्रँगार करना चाहिए। असल जुगती यह है कि अपने आप को परमेश्वर के आगे अर्पण कर दें। जैसे एक स्त्री अपने पति की हो जाती है। उसकी आज्ञा का पालन करती हुई उसी का रूप हो जाती है।

कीओ सिंगारु मिलन के ताई ॥ हरि न मिले जगजीवन गुसाई ॥१॥
हरि मेरो पिरु हउ हरि की बहुरीआ ॥
राम बडे मै तनक लहुरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ धन पिर एकै संगि बसेरा ॥
सेज एक पै मिलनु दुहेरा ॥२॥ धंनि सुहागनि जो पीअ भावै ॥
कहि कबीर फिरि जनमि न आवै ॥३॥८॥३०॥ अंग 483

अर्थ: पति को मिलने के लिए कोई जोबनमती स्त्री सोलह श्रँगार करती है, वैसे ही हरि को मिलने के लिए भक्त को भक्ति प्रेम और नेकी सेवा के श्रँगार करने चाहिए। समझ लो कि हरि परमात्मा मेरा पति है और मैं उसकी दीवानी स्त्री हूँ। वो बहुत बड़े हैं और मैं नाचीज सी। पर इसके उलट कुछ ऐसी भी स्त्रियाँ होती हैं जो अपने पति के पास ही रहती हैं उसकी सेज पर सोते हुए भी पति का मिलाप प्राप्त नहीं कर पाती, क्योंकि उन स्त्रियों में अहँकार होता है। इसी प्रकार ऐसे अनेक संत साधू हैं जो भक्ति करते हैं पर अँहकार और ईष्या के कारण परमात्मा के पास होकर भी उससे मिल नहीं पाते। जन्म-जन्म भटकते फिरते हैं। उनके अन्दर मैं यानि अहम का नाश नहीं होता और जो भक्त एक सुहागन स्त्री की तरह शुभ लक्ष्णों के कारण पति परमेश्वर को भा जाए तो वो फिर कभी चौरासी के गेढ़े में नहीं आता। उसका जन्म-मरण मिट जाता है। उसकी त्रिष्णा मिट जाती है:

कामु क्रोधु माइआ लै जारी त्रिसना गागरि फूटी ॥
काम चोलना भइआ है पुराना गइआ भरमु सभु छूटी ॥२॥
सरब भूत एकै करि जानिआ चूके बाद बिबादा ॥
कहि कबीर मै पूरा पाइआ भए राम परसादा ॥३॥६॥२८॥ अंग 483

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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