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12. भूले ब्राहम्ण को सीधी राह दिखाना

प्रभु द्वारा दी गई अक्ल को मनुष्य सदा अपने लाभ के लिए प्रयोग करता हुआ भूल करता आया है। परमात्मा ने सभी को एक जैसा बनाया था। ज्यादा अक्ल वालों ने नाजायज फायदा उठाया। हिन्द में ब्राहम्ण सबसे उत्तम बना। इसने शुद्र और नीच जाति के लोगों के साथ अभद्र व्यवहार करना शुरू कर दिया और उन्हें मन्दिरों में भी आने की अनुमति नहीं दी गई। भक्त और संतों ने इन गरीबों को ऊँचा उठाने का यत्न किया। एक दिन कबीर जी की लडकी कुँए पर पानी लेने गई। कुँए पर एक परदेसी ब्राहम्ण तिहाइया आ गया। उसने कमाली (कबीर जी की पुत्री) से पानी माँगा। कमाली पानी पिलाने लगी तो ब्राहम्ण के मन में विचार आया कि कहीं यह नीच जाति की न हो। उसने पूछा: तूँ किस जाति की है ? तो कमाली ने जवाब दिया: मुस्लमान जुलाहे की बेटी। यह सुनकर वह ब्राहम्ण पीछे हट गया। ब्राहम्ण बोला: मैं पानी नहीं पिऊँगा, तुँ शुद्र की लड़की है, मैं तेरे हाथ से पानी नही पी सकता। यह कहकर चला गया। ब्राहम्ण के मूँह से निकली बात सुनकर मासूम कमाली जी को बहुत दुख हुआ। वह घर गई और अपने पिता कबीर जी से पूछा: पिता जी ! क्या हम शुद्र हैं ? ब्राहम्ण हमसे पानी क्यों नहीं पीते ? क्या हम मनुष्य नहीं ? कबीर जी ने उत्तर दिया: पुत्री ! हम मनुष्य हैं और हमें भी उसी परमात्मा ने बनाया है, जिसने ब्राहम्णों को। किन्तु समाज के कुछ लालची मनुष्यों ने ही इस सोच को जन्म दिया है और इसे चार वर्ण में बाँटा है। जो कुछ को ऊँचा और कुछ को नीचा जानते हैं। सारे जीव राम के अँश हैं। ब्राहम्ण जात में अभिमान भरा हुआ है। यह नर्कों का भागी बनेगा। इस प्रकार कबीर जी ने मासूम कन्या को समझा दिया और आप उस ब्राहम्ण की मूर्खता के बारे में सोचने लगे। परमात्मा की कृपा से कभी-कभी ऐसी घटनाएँ होती हैं, जो इन्सान पर बहुत गहरा असर करती हैं। कबीर जी तड़के स्नान करने के लिए गँगा के किनारे जाते थे और अंधेरे में ही घर आ जाते थे, क्योंकि सूरज की रोशनी में सुबह किसी शुद्र को गँगा स्नान नहीं करने दिया जाता था। पुत्री कमाली की बातों से भक्त कबीर जी के मन पर कुछ भार था। वह ब्राहम्णों को ज्ञान करवाना चाहते थे कि वह भूल जाएँ जाति-पाति, चार वर्ण को और सभी इन्सानों को अच्छा समझें। सँयोग से उसी समय मुकन्दा ब्राहम्ण गँगा स्नान करके सीढ़ी चढ़ने लगा।

तो कबीर जी ने कहा: पण्डित जी ! राम राम।  पण्डित जी ने राम राम का कोई उत्तर नहीं दिया और गुस्से से लाल होकर बोला– कि तूँ क्यों गँगा किनारे आया। मेरा स्नान भँग कर दिया। शुद्र ! जलाहा ! मलेछ ! चण्डाल ! आदि शब्दे बोले और मुड़कर स्नान करने के लिए चला गया। उसने डुबकी लगाई। पाले से काँपती आवाज में दो बार सीता राम कहा। जल्दी में सीढ़ियाँ चढ़ते समय उसने देखा नहीं कि कबीर जी आगे थे, वो उनसे जा टकराया। कबीर जी ने कहा: पण्डित जी ! जरा ध्यान से चलो। टक्कर ना मारो और राम कहो। पण्डित गुस्से से कबीर जी को गालियाँ देने लगा और वापिस मुड़ गया और जल्दी से गँगा में डुबकी लगाने लगा। यहाँ पर परमात्मा ने अपनी लीला का अचरज कौतक दिखाया। ब्राहम्ण को दिखाई दिया कि गँगा की पहली सीढ़ी पर कबीर जी दिख रहे हैं और उसकी ओर देखकर मुस्करा रहे हैं, ब्राहम्ण एक तरफ होने लगा तो परमात्मा ने हँसकर ब्राहम्ण को हाथ लगा दिया। ब्राहम्ण फिर गँगा में चला गया। परमात्मा की लीला बेअंत है। अब उस ब्राहम्ण को कबीर जी हर स्थान पर दिखाई देने लगे। अब वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा: मलेछ जुलाहा कबीर ! मेरे आगे से नहीं हटता। लोगों मुझे बचाओ ! धर्म भ्रष्ट कर रहा है। मुझे गँगा से बाहर नहीं जाने देता। इससे बचाओ। उसका हल्ला सुनकर स्नान करने आये ब्राहम्ण श्रद्धालू लोग एकत्रित हो गए। उन्होंने देखा ब्राहम्ण अकेला था। वह फिर भी बोले जा रहा था कि कबीर को दूर करो। सब उसके साथ लग रहे हैं। सब मलेछ बन गए। उसकी ऊँटपटाँग बाते सुनकर उन्होंने समझा कि ब्राहम्ण पागल हो गया है उन्होंने भी हँसना शुरू कर दिया। वो ब्राहम्ण जब बाहर निकलकर आठ-दस सीढ़ियाँ चड़े तो आगे सचमुच कबीर जी खड़े थे। अब बाकी लोगों ने भी देखा। सारे गर्म होके कबीर जी को कहने लगे: कबीर ! तूँ क्यों सुबह गँगा किनारे आया है ? यह समाँ तो पाठ-पूजा का है। कबीर जी ने कहा: महाश्यों ! मैं भी स्नान करने और पाठ-पूजा करने आया हूँ। एक ब्राहम्ण चिल्लाकर बोला: तूँ नहीं आ सकता। कबीर जी ने कहा: पण्डित जी ! मैं क्यों नहीं आ सकता ? ब्राहम्ण: कबीर ! तूँ नीची जाति का है इसलिए नहीं आ सकता। कबीर जी ने ब्राहम्णों से बाणी में कहा:

गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
ब्रह्म बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥॥४॥७॥ अंग 324

हे जाति अभिमानी ब्राहम्ण ! तूँ जरा सोच कि माँ के पेट में जब भगवान ने तुझे जान और तन दिया था उस समय कभी सोचा कि तुँ ब्राहम्ण था या कोई ओर जाति का। जब ब्रहमा ने सृस्टि की उतपति की तब किसे पहले रचा था। भला यह बता सकता है कि ब्राहम्ण और पण्डित कब के हुए हैं। ऐसे ही झूठा हल्ला मचा-मचाकर अपने जनम को व्यर्थ गवाँ रहा है। अगर तेरी बात मान भी लें कि तूँ बहुत अच्छा है और भगवान को बहुत प्यारा है तो:

जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥ तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥ हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥  अंग 324

जब ब्राहम्णी ने तुझे जन्म दिया था तो तूँ उस रास्ते से क्यों आया या जन्म लिया जिस रास्ते से आम लोग आते हैं। शुद्र, क्षत्रीय, और वैश्य ! क्या अन्तर हुआ तेरे और आम लोगों में। ना तूँ ब्राहम्ण है और न मैं शूद्र हूँ। जो मेरे अन्दर खून है वह तेरे भी अन्दर है। तेरे अन्दर कोई दुध नहीं है। तन करके सारे मनुष्य एक समान हैं। ऐसे ही भ्रम नहीं करना चाहिए।

कहु कबीर जो ब्रह्मु बीचारै ॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥  अंग 324

ब्राहम्ण वह है जो ब्रहम (परमात्मा) के ज्ञान और आत्मा की होंद (अस्तित्व) और उसके निशाने को जानता है। जन्म करके कोई ब्राहम्ण नहीं हो सकता। इस प्रकार के उपदेश और सत्यवाद को सुनकर सारे पण्डित और स्याने पुरूष हैरान हो गए। वह झूठे साबित हो गए और वहाँ से धीरे-धीरे खिसक गए। मुकँद ब्राहम्ण की बहुत बुरी दशा थी। वह तो पागलों जैसा होकर घर भाग गया और कई दिन बीमार रहा। बाकी के लोग जो यहाँ पर एकत्रित हुए थे उन्होंने कबीर जी के चरणों में माथा टेका और ब्रहम उपदेश सुनने की इच्छा प्रगट की। सारे गँगा की सीढ़ियों पर ही बैठ गए और सतसंग शुरू हो गया। इसी प्रकरण को ही कबीर जी ने शुरू रखा। लोगो को जाति के भ्रम को छोड़कर राम नाम के सिमरन की तरफ जाने की प्रेरणा दी। आप जी ने आसा राग में शबद गाया:

हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥
तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥
मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥
जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ ॥
हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥
कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥
तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥
तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥ अंग 482

अर्थ: जो सुत का धागा जनेऊ पहनकर कोई ब्राहम्ण हो सकता है तो हम तो जुलाहे हैं और हमारे यहाँ पर तो सूत के थान के थान पड़े रहते हैं। तुम जुबान से वेद और गायत्री मँत्र पड़ते हो पर मेरे तो दिल में ही प्रभु का नाम है। नाम ही नहीं बल्कि प्रभु गोबिन्द ही दिल में बसता है। यह बताओ जब परमात्मा हिसाब पूछेगा, तब क्या जवाब दोगे। हम तो सदा अरदास करते रहते हैं कि हम तो गाय हैं और आप गायों को चाहने वाले श्री कृष्ण हो जो जन्म से हमारी रक्षा कर रहे हो। जो कोई किसी की रक्षा नहीं करता तो उसका मालिक कैसे हो सकता है ? यहाँ पर यह ब्राहम्ण हैं और मैं काशी नगरी का जुलाहा हूँ, मेरे ज्ञान को समझो। यह ब्राहम्ण सदा अमीर और राजाओं का आसरा रखता है पर मैं तो एक परमात्मा का ही आसरा रखता हूँ। उसी पर मुझे भरोसा है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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