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10. ब्राहम्णों द्वारा कबीर जी की निंदा

कबीर जी साधूओं के साथी बन गए। साधूओं के साथ उनका मेलजोल बढ़ गया। बैरागी साधू उनके साथ सदैव रहने लग गए और सतसंग बना रहने लगा। एक दिन ऐसी मन की मौज आई राम ने आत्मा को ऐसा उछाल दिया कि साथी साधूओं को कुछ वस्त्र देने के लिए तैयार हो गए। भोजन भी तैयार करवाया। भोजन करवाकर, वस्त्र देकर बैरागियों की आत्मा को प्रसन्न किया। कबीर जी के घर से भोजन करके और वस्त्र लेकर जब बैरागी साधू कबीर जी के घर से बाहर निकले तो कबीर जी का जस गाने लगे। कबीर जी का जस सुनकर ब्राहम्णों पेट में शूल उठने लगे। वे ब्राहम्ण कबीर जी की निंदा करने लगे और कहने लगे: कि देखो कबीर ! नीची जाति के बैरागी साधूओं को दान करता है। परन्तु उच्च जाति के ब्राहम्णों को दान नहीं करता। इसका कारण यह है कि वह आप ही नीची जाति का है। कबीर जी के बहुत श्रद्धालू थे और काशी नगर में कबीर जी की निंदा होती देखकर सहन न कर सके। वो सब दौड़े-दौड़े कबीर जी के पास आये और सारी बात बताई और कहने लगे कि हम आपकी निंदा नहीं सुन सकते। यह सुनकर कबीर जी ने बाणी उच्चारण की:

निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥ निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥
निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ ॥
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥ नामु पदार्थु मनहि बसाईऐ ॥
रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥ हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
निंदा करै सु हमरा मीतु ॥ निंदक माहि हमारा चीतु ॥
निंदकु सो जो निंदा होरै ॥ हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥ निंदा हमरा करै उधारु ॥
जन कबीर कउ निंदा सारु ॥ निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥ अंग 339

अर्थ: हे भक्त जनों, जो लोग मेरी निंदा करते हैं, उनको निंदा करने दो, मुझे निंदा बहुत प्यारी है, निंदा माँ-बाप के समान होती है, क्योंकि जिसकी निंदा होती है उसकी मैल धोई जा सकती है, आप कोई भी चिंता न करो। ब्राहम्णों को अपनी मर्जी करने दो। जितनी मेरी निंदा होगी, उतने ही मेरे पाप झड़ेंगे, मेरा असली मित्र वो ही है, जो मेरी निंदा करता है, निंदक भवसागर में डुब जाएगा और शायद मैं पार हो जाऊँगा। तभी उसी समय वहाँ से काशी नगर के बहुत से ब्राहम्ण आ निकले और बोले: कबीर ! तुने ब्राहम्णों को छोड़कर बैरागी साधूओं को दान किया, क्या यह ब्राहम्णों का निरादर नही ? दया और नम्रता के सागर कबीर जी ने कोई गुस्सा नहीं किया और हँसते हुए मुखड़े से मीठे शब्दों में बोले: पण्डित जी महाराज ! जो कोई भूल हुई है उसे क्षमा करें। उन बैरागी साधूओं को दान किया है, वो अपनी जगह है, आप हुक्म करो मैं आप जी की क्या सेवा करूँ। मैं तो राम भक्तों का सेवादार हूँ, जो हुक्म हो, उसे करने को तैयार हूँ। क्रोध करना विद्वान पुरूष के लिए ठीक नहीं। कबीर जी की मीठी प्रेममयी बाणी सुनकर उनका क्रोधी मन शान्त हो गया। फिर भी लालची और अभिमानी ब्राहम्ण बोले: हमको पक्का भोजन खिलाकर दक्षिणा दो। कबीर जी बोले: अगर मेरा राम इस प्रकार की सेवा से प्रसन्न होता है, तो मैं यह सेवा कर देता हूँ। मेरा तो कुछ भी नहीं, सब कुछ राम का है, क्योंकि राम ही खिलाने वाला है और राम ही खाने वाला है। प्रभु की महिमा कौन कथन कर सकता है ?

सभी ब्राहम्ण एक सूर में बोले: कि देख लेते हैं तेरे राम को ! ला मिठाई। ला दक्षिणा। दरअसल जात अभिमानी ब्राहम्ण मिठाई खाने नहीं आए थे, वो तो सच्चे राम भक्त की परीक्षा लेने के लिए आए थे। वो सब मायावादी थे, क्योंकि मिट्टी के बँदों को केवल लाभ-हानि का ही हिसाब सुझता है। वो सब राम की लीला को नहीं जानते थे। उन्होंने सोचा कि कबीर एक गरीब जुलाहा है, वह कैसे किसी को मिठाई खिलाएगा ? कैसे किसी को दक्षिणा देगा ? कोई इसे उधार भी नहीं देगा। जब यह सब कुछ नहीं हो सकेगा तो हम हल्ला मचा देगे कि यह झूठा है। भक्त नहीं, क्योंकि नीची जाति का कोई बन्दा कभी भगवान के नजदीक नहीं पहुँच सकता और कबीर जी को पाखण्डी कहकर भगाएँगे। (पर वो पाखण्डी ब्राहम्ण आप भेद नहीं जानते थे)। कबीर जी ने बिना झिझक के परमात्मा पर भरोसा रखकर अपनी पत्नी लोई जी से कहा: कि काशी के "ब्राहम्णों व पूजनीय पण्डितों" को पक्का भोजन करवाना है। आप अन्दर जाकर तैयारी करो, मैं इन्हें बिठाता हूँ। लोई जी अभी पूरी तरह से भरोसे में नहीं थीं। उनकी आत्मा को राम रँग पूरा तरह नहीं चड़ा था। वह कहने लगी: महाराज ! रात में सारे बर्तन खाली हो गए थे। घर में ना अन्न है ना माया।

कबीर जी ने कहा: लोई जी ! माया राम की है, चिन्ता न करो जाओ। माता लोई जी ने कबीर जी की आज्ञा का पालन किया। वह चुपचाप अन्दर चली गईं। परमात्मा ने अपने भक्त की लाज रखनी थी। वह कभी भी अपने भक्त को लोगों के सामने नीचा नहीं होने देता। परमात्मा ने अपनी शक्ति से कबीर जी के घर के जितने कच्चे-पक्के बर्तन थे, वह तरह-तरह की मिठाईयों से भर दिए। जब माता लोई (कबीर जी की धर्मपत्नी) अन्दर आईं और उन्होंने खाली बर्तन को देखा तो उसे देखकर वह हैरान रह गई, उसमें मिठाई थी, इस प्रकार से सभी बर्तन भरे हुए थे। उसके मुँह से अपने आप ही निकल गया– धन हो परमात्मा ! मैं बलिहारी जाऊँ। हे मेरे राम ! मैं वारी जाऊँ। तुम अपने भक्त कबीर जी की लाज रखने वाले, पावन हो। जब माता लोई जी बाहर आईं तो उनके घर के आँगन में बहुत सारे ब्राहम्ण बैठे हुए थे, जिससे आँगन पूरा भरा हुआ था। जबकि आँगन की छोटी दिवारों से दूर बहुत सारे लोग खड़ थे। सभी लोग भक्त की परीखा का नजारा देखने आये हुये थे। कबीर जी लोगों को बिठा रहे थे। वह बिठाते हुए राम नाम का सिमरन करते जा रहे थे। पँगतें सज गईं। ब्राहम्ण पाँच सौ से ऊपर हो गए। हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ थी, जो प्रसाद खाने के अभिलाषी थे। कबीर जी सबको अन्दर बिठाकर आए। आगे माई लोई ने एक परात में मिठाई डालकर रखी हुई थी। परात लेकर कबीर जी बाहर आए और परात में से पँगतों में बरताने लगे। पहली परात लडडूओं की थी। सारी पँगतों में लडडू बरताये पर लडडू खत्म नहीं हुए। लडडूओं के बाद कलाकँद, रसगुल्ले, पेड़े आदि सुँगध वाली मिठाईयँ परोसी गईं। सारे ब्राहम्णों और जो भी दर्शक थे, सबने मिठाईयाँ खाईं। जिस-जिसने कबीर जी के घर से मिठाई खाई उसका जीवन सँवर गया। उसे मिठाई अमृत जैसी लगी और वो स्वाद-स्वाद हो गया। मिठाई खिलाने के बाद कबीर जी ने सभी ब्राहम्णों को दक्षिणा दी। दक्षिणा प्राप्त करके अहँकारी ब्राहम्णों का अहँकार टूट गया। वो सब झूठे साबित हुए और शर्मिन्दा भी हुए पर उन्होंने हठ नहीं छोड़ा। वो हार कर भी कई-कई बातें करते हुए गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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