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7. सुखमनी

यह गुरू अरजन पातशाह की एक बड़े आकार की बाणी है। इसकी 24 पउड़ियाँ व 24 असटपदियाँ हैं। यह श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के अंग 262 पर गउड़ी राग में दर्ज है। सुखमनी का शाब्दिक अर्थ सुखों की मणी है। इसकी प्राप्ति इस बाणी की रहाउ की पंक्ति से स्पष्ट है–

सुखमनी सुख अमृत प्रभ नामु ।। भगत जना कै मनि बिस्राम ।।

इस रचना में अन्तिम सुख या बड़ा सुख परमात्मा का मिलाप बताया है और यह भी स्पष्ट किया है कि किसी भी सुख की प्राप्ति का मार्ग कठिन होता है तथा कठिन मार्ग को पार करने के लिए संघर्ष करने की जरूरत पड़ती है। परमात्मा तक पहुँचने का राह बेशक कठिन है पर उस कठिन मार्ग को सँयमी वृतियों को धारण करके स्थायी सुख की प्राप्ति की जा सकती है।

उदाहरण के लिए, एक असटपदी दी जा रही हैः
गउड़ी सुखमनी मः ५ ॥ सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
आदि गुरए नमह ॥ जुगादि गुरए नमह ॥ सतिगुरए नमह ॥
स्री गुरदेवए नमह ॥१॥ असटपदी ॥ सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥
कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥ सिमरउ जासु बिसुमभर एकै ॥
नामु जपत अगनत अनेकै ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥
कीने राम नाम इक आख्यर ॥ किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥
ता की महिमा गनी न आवै ॥ कांखी एकै दरस तुहारो ॥
नानक उन संगि मोहि उधारो ॥१॥ सुखमनी सुख अमृत प्रभ नामु ॥
भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ ॥ प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥
प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥ प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥
प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥ प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥
प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै ॥ प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥
प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥ प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥
सरब निधान नानक हरि रंगि ॥२॥ प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥
प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥ प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥
प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि तीर्थ इसनानी ॥
प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥ प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥
प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥ से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥
नानक ता कै लागउ पाए ॥३॥ प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा ॥
प्रभ कै सिमरनि उधरे मूचा ॥ प्रभ कै सिमरनि त्रिसना बुझै ॥
प्रभ कै सिमरनि सभु किछु सुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि नाही जम त्रासा ॥
प्रभ कै सिमरनि पूरन आसा ॥ प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ ॥
अमृत नामु रिद माहि समाइ ॥ प्रभ जी बसहि साध की रसना ॥
नानक जन का दासनि दसना ॥४॥ प्रभ कउ सिमरहि से धनवंते ॥
प्रभ कउ सिमरहि से पतिवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से जन परवान ॥
प्रभ कउ सिमरहि से पुरख प्रधान ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि बेमुहताजे ॥
प्रभ कउ सिमरहि सि सरब के राजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि से सुखवासी ॥
प्रभ कउ सिमरहि सदा अबिनासी ॥ सिमरन ते लागे जिन आपि दइआला ॥
नानक जन की मंगै रवाला ॥५॥ प्रभ कउ सिमरहि से परउपकारी ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन सद बलिहारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि से मुख सुहावे ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन सूखि बिहावै ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन आतमु जीता ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन निर्मल रीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन अनद घनेरे ॥
प्रभ कउ सिमरहि बसहि हरि नेरे ॥ संत क्रिपा ते अनदिनु जागि ॥
नानक सिमरनु पूरै भागि ॥६॥ प्रभ कै सिमरनि कारज पूरे ॥
प्रभ कै सिमरनि कबहु न झूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि हरि गुन बानी ॥
प्रभ कै सिमरनि सहजि समानी ॥ प्रभ कै सिमरनि निहचल आसनु ॥
प्रभ कै सिमरनि कमल बिगासनु ॥ प्रभ कै सिमरनि अनहद झुनकार ॥
सुखु प्रभ सिमरन का अंतु न पार ॥ सिमरहि से जन जिन कउ प्रभ मइआ ॥
नानक तिन जन सरनी पइआ ॥७॥ हरि सिमरनु करि भगत प्रगटाए ॥
हरि सिमरनि लगि बेद उपाए ॥ हरि सिमरनि भए सिध जती दाते ॥
हरि सिमरनि नीच चहु कुंट जाते ॥ हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥
सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥ हरि सिमरनि कीओ सगल अकारा ॥
हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥ करि किरपा जिसु आपि बुझाइआ ॥
नानक गुरमुखि हरि सिमरनु तिनि पाइआ ॥८॥१॥ अंग 262

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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