6. करहले
यह रचना गुरू रामदास जी की है जो कि श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के अंग 234 पर दर्ज
है। ऐतिहासिक प्रसँग में करहले ऊँटों के ऊपर व्यापार करने वाले व्यापारियों के लम्बे
गीत थे जिसमें वे सफर का अकेलापन, थकावट तथा घर की याद का वर्णन करते हुए चलते जाते
थे। सबसे अगला ऊँठ-सवार गायन शुरू करता और पीछे उसके साथी उसका साथ देते। इसका भाव
यह है कि जैसे व्यापारियों का कोई और ठिकाना नहीं होता, घूमते-घूमते वे अपनी ज़िन्दगी
बसर करते हैं, इसी प्रकार मनुष्य जब परमात्मा के गुणों का धरणी नहीं बनता, अपने मन
के पीछे चलता है तो उसका भी ठिकाना एक नहीं रहता। वह आवागन में उलझ जाता है क्योंकि
मन का चँचल स्वभाव उसे उसी तरह उलझाए रखता है जैसे व्यापारी थोड़े से लाभ के पीछे और
आगे से आगे बढ़ता जाता है। यह रचना स्पष्ट करती है कि ज़िन्दगी लालच नहीं है, ज़िन्दगी
‘मन तूं जोति सरूपु है आपणा मुलु पछाणु’ है जिसने मूल पहचान लिया, उसका आवागवन मिट
गया। इच्छाओं पर काबू पाना और परमात्मा से एकसुरता ही ज़िन्दगी का असल सच है।
उदाहरण के लिएः
रागु गउड़ी पूरबी महला ४ करहले ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
करहले मन परदेसीआ किउ मिलीऐ हरि माइ ॥
गुरु भागि पूरै पाइआ गलि मिलिआ पिआरा आइ ॥१॥
मन करहला सतिगुरु पुरखु धिआइ ॥१॥ रहाउ ॥
मन करहला वीचारीआ हरि राम नाम धिआइ ॥
जिथै लेखा मंगीऐ हरि आपे लए छडाइ ॥२॥
मन करहला अति निरमला मलु लागी हउमै आइ ॥
परतखि पिरु घरि नालि पिआरा विछुड़ि चोटा खाइ ॥३॥
मन करहला मेरे प्रीतमा हरि रिदै भालि भालाइ ॥
उपाइ कितै न लभई गुरु हिरदै हरि देखाइ ॥४॥
मन करहला मेरे प्रीतमा दिनु रैणि हरि लिव लाइ ॥
घरु जाइ पावहि रंग महली गुरु मेले हरि मेलाइ ॥५॥
मन करहला तूं मीतु मेरा पाखंडु लोभु तजाइ ॥
पाखंडि लोभी मारीऐ जम डंडु देइ सजाइ ॥६॥
मन करहला मेरे प्रान तूं मैलु पाखंडु भरमु गवाइ ॥
हरि अमृत सरु गुरि पूरिआ मिलि संगती मलु लहि जाइ ॥७॥
मन करहला मेरे पिआरिआ इक गुर की सिख सुणाइ ॥
इहु मोहु माइआ पसरिआ अंति साथि न कोई जाइ ॥८॥
मन करहला मेरे साजना हरि खरचु लीआ पति पाइ ॥
हरि दरगह पैनाइआ हरि आपि लइआ गलि लाइ ॥९॥
मन करहला गुरि मंनिआ गुरमुखि कार कमाइ ॥
गुर आगै करि जोदड़ी जन नानक हरि मेलाइ ॥१०॥१॥ अंग 234